रविवार, 25 अगस्त 2019

हम मेहनतकश आजाद रहे हैं खुले आसमां के नीचे 
ईश्वर मंदिर में कैद हुआ, बैठा है वो आँखें मीचे |


बंदी है लौह सलाखों में, पत्थर की बड़ी दीवारों में 
चिपका रहता दीवारों पर बिकता छपकर इश्तहारों में |


ताबीजों में बाँधा उसको, फूँकों से उसे उड़ाया है 
जब किसी काम का नहीं रहा पानी में उसे बहाया है |


कुछ शेष रहा तो पड़ा रहा पत्थर से जड़ी मजारों में 
कुछ टुकड़े टुकड़े बाँट दिया भक्तों की खड़ी कतारों में |


लेकिन हम मेहनतवालों ने कब उसको शीश झुकाया है 
जो कुछ भी हमको मिला यहाँ अपनी मेहनत से पाया है |


फिर क्यों हम जै जैकार करें,क्यूँ माने उसको हम महान
कर लिया रतजगा बहुत दिनों, सो जाएं चादर बड़ी तान।

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