गुरुवार, 2 अप्रैल 2020

धार्मिक धारावाहिक

कोरोनामारी के प्रकोप से घर में कैद हुए लोगों को टी वी पर रामायण और महाभारत देखते रहने की सुविधा देकर सरकार ने काफी सूझ बूझ का काम किया है | सरकार के इस समझदारी के काम की सरहाना की जानी चाहिए | जब पहली बार रामायण सीरियल प्रसारित होना शुरू हुआ था तो गली मोहल्ले में सन्नाटा छ जाता था | तब सबके पास टी वी भी नहीं था | लोग पास पड़ौस के घर में टी वी के सामने  आलती पालती मारकर जम जाते थी | कोई कोई भक्त तो अगरबत्ती जलाकर टी वी की आरती भी उतारते थे | अब वैसा क्रेज तो नहीं है लेकिन काफी बड़ी तादाद में लोग ये धार्मिक धारावाहिक देख रहे हैं |
   मैं धार्मिक व्यक्ति नहीं हूँ लेकिन धार्मिक धारावाहिक नियमित देखता हूँ | मैं श्रद्धा से नहीं समालोचना की नजर से देखता हूँ लेकिन तत्काल सार्वजनिक रूप से आलोचना करने से बचता हूँ |  क्या पता कौन भक्त हनुमान बनकर मुझ पर ही पिल पड़े | लेकिन आप भी अगर सचेत होकर ये धारावाहिक देखें तो आपको कई महत्वपूर्ण जानकारियां प्राप्त होंगी | जैसे सीता के स्वयंवर में जनक कहते हैं कि मैंने अपनी पुत्री के लिए कोई मूल्य नहीं माँगा, बस शिव धनुष पर प्रत्यंचा चढाने की छोटी सी मांग की है लेकिन क्या कोई मानव, देव् या दैत्य इतना सा काम भी नहीं कर सकता  है? क्या मेरी पुत्री आजन्म कुंवारी ही रहेगी?
जनक के इस कथन से ज्ञात होता है कि रामायण काल में भी कन्या का विवाह होना आवश्यक था जबकि आज एक अविवाहित स्त्री भी सम्मान और अधिकार से समाज में रह सकती  है, ऐसी सवैंधानिक व्यवस्था है |
दूसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि उस त्रेतायुग में भी जिसे आज के कलयुग से श्रेष्ठ बताया जाता है, कन्या का मूल्य लिया जाता था| आधुनिक युग में किसी स्त्री की खरीद फरोख्त कानूनन अपराध है |  हाँ उस युग में ये अच्छी बात थी कि कन्या अपना वर स्वयं चुनती थी| लेकिन उसका ये चयन भी सीमित था| उसके सामने जो विकल्प उपलब्ध थे वही चुने जा सकते थे| उससे बाहर का चयन वर्जित था| इस दृष्टि से भी आधुनिक युग ज्यादा अच्छा है |
अब रामराज का गुणगान करने वाले स्वयं रामायण को आँख कान खोलकर देख सुन लें और तय कर लें कि क्या उचित है और क्या नहीं है|
इस तरह का सीरियल पैगम्बर मोहम्मद साहब के जीवन पर भी बनाया जाता तो बहुत ही अच्छा होता| लेकिन क्या करें इस्लाम तो इसकी इजाजत ही नहीं देता है | लेकिन क्या गैर मुस्लिम को पैगम्बर मोहम्मद साहब की जीवन गाथा और इस्लाम धर्म की सही जानकारी लेने का हक़ नहीं है ? अगर वो इसे दृश्य श्रव्य माध्यम से लेना चाहें तो मुसलमानों आपत्ति क्यों होनी चाहिए ?

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