सोमवार, 22 मार्च 2021

जनवादी गीत संग्रह-' लाल स्याही के गीत' 11-अवध बिहारी श्रीवास्तव के गीत



                अवध बिहारी श्रीवास्तव     

 एक -'जुम्मन की गवाही '

देने चला गवाही जुम्मन झूठी बातों की |


राजा ने बुलवाया होगा भेजा हरकारा

राज सुखों की चिट्ठी थी क्या करता बेचारा

राजा को चिन्ता है अपने सिंहासन भर की

जुम्मन को चिन्ता है अपनी काली रातों की ।


चाय-पान थोड़ी सुख-सुविधा मिलती रहे अगर

जुम्मन बायाँ हाथ टीप दे दस्तावेज़ों पर

‘भाई‘ और ‘भतीजे‘ राजा के कम हैं, वरना

राजा को दरकार नहीं जुम्मन के छातों की ।


गेहूँ के खेतों में राजा सड़कें बनवाए

अपना अर्थशास्त्र जुम्मन को राजा समझाए

नये-नये रिश्ते जुम्मन के अब दरबारों से

याद नहीं अंतिम कतार के रिश्ते नातों की ।


                           दो -'मंडी चले कबीर'

कपड़ा बुनकर थैला लेकर मण्डी चले कबीर |


जोड़ रहे हैं रस्ते भर वे लगे सूत का दाम

ताना-बाना और बुनाई बीच कहाँ विश्राम 

कम से कम इतनी लागत तो पाने हेत अधीर |


माँस देखकर यहाँ कबीरों पर मंडराती चील

तैर नहीं सकते आगे हैं शैवालों की झील

‘आग‘ नही, आँखों में तिरता है चूल्हे का नीर |


कोई नहीं तिजोरी खोले होती जाती शाम 

उन्हें पता है कब बेचेगा औने पौने दाम

रोटी और नमक थैलों को बाज़ारों को खीर | 

          तीन 

'गाँव का मेला'


वैसा का वैसा है मेरी यादों में लीला का मेला|

जिस समय अकेला होता हूँ,वह कमरे में आ जाता है|


गठरी में बाँध चला आता ,लेकर सारी  'दसमी बारी'

छनती जलेबियों की महकें, पूरी,कद्दू की तरकारी

सुन पड़ी हँसी मीठी बोली आ गई लड़कियों की टोली 

शर्माती हैं खरीदती हैं लाली, बिंदी, चूड़ी,चोली


जब खट्टी मीठी बातों की, पोटलियां खोल रहा था मैं 

कुछ ऐसे चित्र मिले मुझको,जिनका बचपन से नाता है|


वे मिट्टी के हाथी घोड़े, दरबान और राजा-रानी 

बाबू की खाली जेब और, मेरी आँखों वाला पानी

वे गोल-गोल घूमते हुए,कुछ उनसे और बड़े झूले 

जिन पर मैं झूल नहीं पाया,वे अब तक मुझे नहीं भूले


असमय ही बड़ा हो गया था,कोई हठ कभी नहीं जाना 

मेरे भीतर जो 'हामिद' था वह अब भी मुझे रुलाता है |


महुआ की उभरी हुइ जड़ें, काँपता पोखरे का पानी 

जो देह-गंध लेकर आते,कितनी वह जानी पहचानी

सब कथा पूछते हैं मेरी क्या कहता किसी तरह टाला 

जलती सड़कों पर चलना था शादी की बच्चों को पाला


हर बार चिट्ठियाँ 'तुड़ी-मुड़ी' मेले को वापस करता हूँ

हर बार नई चिट्ठियाँ भेज फिर मेला मुझे बुलाता है |

         चार 

मा कहती है 'चुप रह लड़की'

ऐसी ही विपदा हर घर की | 


किस्मत में तो यही लिखा था  ऐसे ही घर पैदा होना 

कुआं खोदना,पानी पीना तिरस्कार माथे पर ढोना 

पूर्व जन्म के पापों से यह मिली यातना जीवन भर की |


कितना बड़ा झूठ है इसको मान पागल है नहीं जानती 

उसकी सोच परिन्दों जैसी गढ 'धोख' को सत्य मानती 

उड़ना भूल गई है शायद खाई लांघ न पाती डर की |


हाथ हमारे बैलों जैसे हाँकेँ उन्हें दूसरा कोई 

यह अचरज है रही पीढ़ियां अब तक क्यों सोई की सोई 

जब कबीर की खंजड़ी बोले आयी किरणे भोर पहर की |


        पांच 



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