मंगलवार, 23 मार्च 2021

हमारे प्रतिनिधि कवि :

13-जोश मलीहाबादी 



               एक 

कहकशाँ है मेरी सुंदन, शाम की सुर्ख़ी मेरा कुंदन

नूर का तड़का मेरी चिलमन, तोड़ चुका हूँ सारे बंधन

पूरब पच्छम उत्तर दक्खन, बोल इकतारे झन झन झन झन


मेरे तन में गुलशन सबके, मेरे मन में जोबन सबके

मेरे घट में साजन सबके, मेरी सूरत दर्शन सबके

सबकी सूरत मेरा दर्शन, बोल इकतारे झन झन झन झन


सब की झोली मेरी झोली, सब की टोली मेरी टोली

सब की होली मेरी होली, सब की बोली मेरी बोली

सब का जीवन मेरा जीवन, बोल इकतारे झन झन झन झन


सब के काजल मेरे पारे, सब की आँखें मेरे तारे

सब की साँसें मेरे धारे, सारे इन्सां मेरे प्यारे

सारी धरती मेरा आँगन, बोल इकतारे झन झन झन झन |


                     दो 

ऐ वतन मेरे वतन रूह-ए-रवानी अहरार

ऐ के ज़र्रों में तेरे बू-ए-चमन रंग-ए-बहार


रेज़-ए-अल्मास के तेरे ख़स-ओ-ख़ाशाक़ में हैं

हड़्ड़ियाँ अपने बुज़ुर्गों की तेरी ख़ाक में हैं


तेरे क़तरों से सुनी पर्वत-ए-दरिया हमने

तेरे ज़र्रों में पढ़ी आयत-ए-सहरा हमने


खंदा-ए-गुल की ख़बर तेरी ज़बानी आई

तेरे बाग़ों में हवा खा के जवानी आई


तुझ से मुँह मोड़ के मुँह अपना दिखाएँगे कहाँ

घर जो छोड़ेंगे तो फिर छाँव निछाएँगे कहाँ


बज़्म-ए-अग़यार में आराम ये पायेंगे कहाँ

तुझ से हम रूठ के जायेंगे तो जायेंगे कहाँ


मज़हबी इख़लाक़ के जज़्बे को ठुकराता है जो

आदमी को आदमी का गोश्‍त खिलवाता है जो


फर्ज़ भी कर लूँ कि हिन्‍दू हिन्‍द की रुसवाई है

लेकिन इसको क्‍या करूँ फिर भी वो मेरा भाई है


बाज़ आया मैं तो ऐसे मज़हबी ताऊन से

भाइयों का हाथ तर हो भाइयों के ख़ून से


तेरे लब पर है इराक़ो-शामो-मिस्रो-रोमो-चीं

लेकिन अपने ही वतन के नाम से वाकिफ़ नहीं


सबसे पहले मर्द बन हिन्‍दोस्‍ताँ के वास्‍ते

हिन्‍द जाग उट्ठे तो फिर सारे जहाँ के वास्‍ते|

                तीन 

क्या हिंद का जिंदाँ काँप रहा गूँज रही हैं तकबीरें

उकताए हैं शायद कुछ क़ैदी और तोड़ रहे हैं जंज़ीरें


दीवारों के नीचे आ-आ कर यूँ जमा हुए हैं ज़िंदगानी

सीनों में तलातुम बिजली का आँखों में झलकती शमशीरें


भूखों की नज़र में बिजली है तोपों के दहाने ठंडे हैं

तक़दीर के लब पे जुम्बिश है दम तोड़ रही है तदबीरें


आँखों में गदा की सुर्खी है बे-नूर है चेहरा सुल्ताँ का

तखरीब ने परचम खोला है सजदे में पड़ी हैं तामीरें


क्या उन को खबर थी सीनों जो ख़ून चुराया करते थे

इक रोज़ इसी बे-रन्गी से झलकेंगी हज़ारों तस्वीरें


क्या उन को खबर थी होंठों पर जो कुफ्ल लगाया करते थे

इक रोज़ इसी खामोशी से टपकेंगी दहकती तक़रीरें


संभलो कि वो जिंदाँ गूँज उठा झपटो की वो क़ैदी छूट गये

उठो की वो बैठी दीवारें दो.दो की वो टूटी जंज़ीरें |


               चार 


तू अगर सैर को निकले तो उजाला हो जाए ।


सुरमई शाल का डाले हुए माथे पे सिरा,

बाल खोले हुए सन्दल का लगाए टीका,

यूँ जो हँसती हुई तू सुब्ह को आ जाए ज़रा,

बाग़-ए-कश्मीर के फूलों को अचम्भा हो जाए,

तू अगर सैर को निकले तो उजाला हो जाए ।


ले के अँगड़ाई जो तू घाट पे बदले पहलू,

चलता-फिरता नज़र आ जाए नदी पर जादू,

झुक के मुँह अपना जो गँगा में ज़रा देख ले तू,

निथरे पानी का मज़ा और भी मीठा हो जाए,

तू अगर सैर को निकले तो उजाला हो जाए ।


सुब्ह के रँग ने बख़्शा है वो मुखड़ा तुझको,

शाम की छाँव ने सौंपा है वो जोड़ा तुझको,

कि कभी पास से देखे जो हिमाला तुझको,

इस तिरे क़द की क़सम और भी ऊँचा हो जाए,

तू अगर सैर को निकले तो उजाला हो जाए ।


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