बुधवार, 24 मार्च 2021

हमारे प्रतिनिधि कवि : 14-रामधारी सिंह दिनकर

 

           एक - कुरुक्षेत्र 

न्यायोचित अधिकार माँगने

से न मिलें, तो लड़ के |

तेजस्वी छीनते समर को

जीत, या कि खुद मरके।


किसने कहा, पाप है समुचित

स्वत्व प्राप्ति-हित लड़ना ?

उठा न्याय क खड्ग समर में

अभय मारना-मरना ?


क्षमा, दया, तप, तेज, 

मनोबल की दे वृथा दुहाई,

धर्मराज, व्यंजित करते तुम

मानव की कदराई।


हिंसा का आघात तपस्या ने

कब, कहाँ सहा है ?

देवों का दल सदा दानवों

से हारता रहा है।


अत्याचार सहन करने का

कुफल यही होता है,

पौरुष का आतंक मनुज

कोमल होकर खोता है।


क्षमा शोभती उस भुजंग को,

जिसके पास गरल हो।

उसको क्या, जो दन्तहीन,

विषरहित, विनीत, सरल हो ?


तीन दिवस तक पन्थ माँगते

रघुपति सिन्धु-किनारे,

बैठे पढते रहे छन्द

अनुनय के प्यारे-प्यारे।


उत्तर में जब एक नाद भी

उठा नहीं सागर से,

उठी अधीर धधक पौरुष की

आग राम के शर से।


सिन्धु देह धर 'त्राहि-त्राहि'

करता आ गिरा शरण में,

चरण पूज, दासता ग्रहण की,

बँधा मूढ बन्धन में।


सच पूछो, तो शर में ही

बसती है दीप्ति विनय की,

सन्धि-वचन संपूज्य उसी का

जिसमें शक्ति विजय की।


सहनशीलता, क्षमा, दया को

तभी पूजता जग है,

बल का दर्प चमकता उसके

पीछे जब जगमग है।


जहाँ नहीं सामर्थ्य शोध की,

क्षमा वहाँ निष्फल है।

गरल-घूँट पी जाने का

मिस है, वाणी का छल है।


  

भूल रहे हो धर्मराज तुम

अभी हिन्सक भूतल है.

खड़ा चतुर्दिक अहंकार है,

खड़ा चतुर्दिक छल है.


मैं भी हूँ सोचता जगत से

कैसे मिटे जिघान्सा,

किस प्रकार धरती पर फैले

करुणा, प्रेम, अहिंसा.


जिए मनुज किस भाँति

परस्पर होकर भाई भाई,

कैसे रुके प्रदाह क्रोध का?

कैसे रुके लड़ाई?


धरती हो साम्राज्य स्नेह का,

जीवन स्निग्ध, सरल हो.

मनुज प्रकृति से विदा सदा को

दाहक द्वेष गरल हो.


बहे प्रेम की धार, मनुज को

वह अनवरत भिगोए,

एक दूसरे के उर में,

नर बीज प्रेम के बोए.



शांति, सुशीतल शांति,

कहाँ वह समता देने वाली?

देखो आज विषमता की ही

वह करती रखवाली.


आनन सरल, वचन मधुमय है,

तन पर शुभ्र वसन है.

बचो युधिष्ठिर, उस नागिन का

विष से भरा दशन है.


पापी कौन? मनुज से उसका

न्याय चुराने वाला?

या कि न्याय खोजते विघ्न

का सीस उड़ाने वाला?


 दो - रश्मिरथी 

'क्षत्रिय है, यह राजपुत्र है, यों ही नहीं लड़ेगा,

जिस-तिस से हाथापाई में कैसे कूद पड़ेगा?

अर्जुन से लड़ना हो तो मत गहो सभा में मौन,

नाम-धाम कुछ कहो, बताओ कि तुम जाति हो कौन?'


'जाति! हाय री जाति !' कर्ण का हृदय क्षोभ से डोला,

कुपित सूर्य की ओर देख वह वीर क्रोध से बोला |

'जाति-जाति रटते, जिनकी पूँजी केवल पाषंड,

मैं क्या जानूँ जाति ? जाति हैं ये मेरे भुजदंड।


'ऊपर सिर पर कनक-छत्र, भीतर काले-के-काले,

शरमाते हैं नहीं जगत में जाति पूछनेवाले।

सूत्रपुत्र हूँ मैं, लेकिन थे पिता पार्थ के कौन?

साहस हो तो कहो, ग्लानि से रह जाओ मत मौन।


'मस्तक ऊँचा किये, जाति का नाम लिये चलते हो,

पर, अधर्ममय शोषण के बल से सुख में पलते हो।

अधम जातियों से थर-थर काँपते तुम्हारे प्राण,

छल से माँग लिया करते हो अंगूठे का दान।


'पूछो मेरी जाति, शक्ति हो तो, मेरे भुजबल से'

रवि-समान दीपित ललाट से और कवच-कुण्डल से,

पढ़ो उसे जो झलक रहा है मुझमें तेज-प़काश,

मेरे रोम-रोम में अंकित है मेरा इतिहास।


'अर्जुन बङ़ा वीर क्षत्रिय है, तो आगे वह आवे,

क्षत्रियत्व का तेज जरा मुझको भी तो दिखलावे।

अभी छीन इस राजपुत्र के कर से तीर-कमान,

अपनी महाजाति की दूँगा मैं तुमको पहचान।'


कृपाचार्य ने कहा ' वृथा तुम क्रुद्ध हुए जाते हो,

साधारण-सी बात, उसे भी समझ नहीं पाते हो।

राजपुत्र से लड़े बिना होता हो अगर अकाज,

अर्जित करना तुम्हें चाहिये पहले कोई राज।'


कर्ण हतप्रभ हुआ तनिक, मन-ही-मन कुछ भरमाया,

सह न सका अन्याय , सुयोधन बढ़कर आगे आया।

बोला-' बड़ा पाप है करना, इस प्रकार, अपमान,

उस नर का जो दीप रहा हो सचमुच, सूर्य समान।


'मूल जानना बड़ा कठिन है नदियों का, वीरों का,

धनुष छोड़ कर और गोत्र क्या होता रणधीरों का?

पाते हैं सम्मान तपोबल से भूतल पर शूर,

'जाति-जाति' का शोर मचाते केवल कायर क्रूर।



  तीन -जनतंत्र का जन्म 

सदियों की ठण्डी-बुझी राख सुगबुगा उठी,

मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;

दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है ।

 

जनता ? हाँ, मिट्टी की अबोध मूरतें वही,

जाड़े-पाले की कसक सदा सहनेवाली,

जब अँग-अँग में लगे साँप हो चूस रहे

तब भी न कभी मुँह खोल दर्द कहनेवाली ।


जनता ? हाँ, लम्बी-बडी जीभ की वही कसम,

"जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।"

"सो ठीक, मगर, आखिर, इस पर जनमत क्या है ?"

'है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है ?"


मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं,

जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में;

अथवा कोई दूधमुँही जिसे बहलाने के

जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में ।


लेकिन होता भूडोल, बवण्डर उठते हैं,

जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है;

दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है ।


हुँकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,

साँसों के बल से ताज हवा में उड़ता है,

जनता की रोके राह, समय में ताव कहाँ ?

वह जिधर चाहती, काल उधर ही मुड़ता है ।


अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अन्धकार

बीता; गवाक्ष अम्बर के दहके जाते हैं;

यह और नहीं कोई, जनता के स्वप्न अजय

चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं ।


सब से विराट जनतन्त्र जगत का आ पहुँचा,

तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो

अभिषेक आज राजा का नहीं, प्रजा का है,

तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो ।


आरती लिए तू किसे ढूँढ़ता है मूरख,

मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में ?

देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,

देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में ।


फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,

धूसरता सोने से शृँगार सजाती है;

दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है ।


चार -रोटी और स्वाधीनता 


आजादी तो मिल गई, मगर, यह गौरव कहाँ जुगाएगा ?

मरभुखे ! इसे घबराहट में तू बेच न तो खा जाएगा ?

आजादी रोटी नहीं, मगर, दोनों में कोई वैर नहीं,

पर कहीं भूख बेताब हुई तो आजादी की खैर नहीं।


हो रहे खड़े आजादी को हर ओर दगा देनेवाले,

पशुओं को रोटी दिखा उन्हें फिर साथ लगा लेनेवाले।

इनके जादू का जोर भला कब तक बुभुक्षु सह सकता है ?

है कौन, पेट की ज्वाला में पड़कर मनुष्य रह सकता है ?


झेलेगा यह बलिदान ? भूख की घनी चोट सह पाएगा ?

आ पड़ी विपद तो क्या प्रताप-सा घास चबा रह पाएगा ?

है बड़ी बात आजादी का पाना ही नहीं, जुगाना भी,

बलि एक बार ही नहीं, उसे पड़ता फिर-फिर दुहराना भी।





0 टिप्पणियाँ:

एक टिप्पणी भेजें