सोमवार, 12 अप्रैल 2021

हमारे प्रतिनिधि कवि : 25-बशीर बद्र




बशीर बद्र              

 एक 

यूँ ही बे-सबब न फिरा करो, कोई शाम घर में भी रहा करो |

वो ग़ज़ल की सच्ची किताब है, उसे चुपके-चुपके पढ़ा करो |


कोई हाथ भी न मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक से

ये नये मिज़ाज का शहर है, ज़रा फ़ासले से मिला करो |


अभी राह में कई मोड़ हैं, कोई आयेगा कोई जायेगा

तुम्हें जिसने दिल से भुला दिया, उसे भूलने की दुआ करो |


मुझे इश्तहार-सी लगती हैं, ये मोहब्बतों की कहानियाँ

जो कहा नहीं वो सुना करो, जो सुना नहीं वो कहा करो |


कभी हुस्न-ए-पर्दानशीं भी हो ज़रा आशिक़ाना लिबास में

जो मैं बन-सँवर के कहीं चलूँ, मेरे साथ तुम भी चला करो |


ये ख़िज़ाँ की ज़र्द-सी शाम में, जो उदास पेड़ के पास है

ये तुम्हारे घर की बहार है, इसे आँसुओं से हरा करो |


नहीं बे-हिजाब वो चाँद-सा कि नज़र का कोई असर नहीं

उसे इतनी गर्मी-ए-शौक़ से बड़ी देर तक न तका करो |

                दो 

अच्छा तुम्हारे शहर का दस्तूर हो गया |

जिसको गले लगा लिया वो दूर हो गया |


कागज में दब के मर गए कीड़े किताब के

दीवाना बे पढ़े-लिखे मशहूर हो गया |


महलों में हमने कितने सितारे सजा दिये

लेकिन ज़मीं से चाँद बहुत दूर हो गया |


तन्हाइयों ने तोड़ दी हम दोनों की अना

आईना बात करने पे मज़बूर हो गया |


सुब्हे-विसाल पूछ रही है अज़ब सवाल

वो पास आ गया कि बहुत दूर हो गया |


कुछ फल जरूर आयेंगे रोटी के पेड़ में 

जिस दिन तेरा मतालबा मंज़ूर हो गया |

                तीन 

दिखला के यही मंज़र बादल चला जाता है |

पानी से मकानों पे कैसे लिखा जाता है |


उस मोड़ पे हम दोनों कुछ देर बहुत रोये

जिस मोड़ से दुनिया को एक रास्ता जाता है |


दोनों से चलो पूछें उसको कहीं देखा है

इक काफ़िला आता है इक काफ़िला जाता है |


दुनिया में कहीं इनकी तालीम नहीं होती

दो चार किताबों को घर में पढ़ा जाता है |

     चार 

आँखों में रहा दिल में उतरकर नहीं देखा |

कश्ती के मुसाफ़िर ने समन्दर नहीं देखा |


बेवक़्त अगर जाऊँगा, सब चौंक पड़ेंगे

इक उम्र हुई दिन में कभी घर नहीं देखा |


जिस दिन से चला हूँ मेरी मंज़िल पे नज़र है

आँखों ने कभी मील का पत्थर नहीं देखा |


ये फूल मुझे कोई विरासत में मिले हैं,

तुमने मेरा काँटों-भरा बिस्तर नहीं देखा |


पत्थर मुझे कहता है मेरा चाहने वाला

मैं मोम हूँ उसने मुझे छूकर नहीं देखा |

      पांच 

हमारा दिल सवेरे का सुनहरा जाम हो जाए  |

चरागों की तरह आँखें जलन जब शाम हो जाए |


मैं खुद भी एहतियातन उस गली से काम गुजरता हूँ 

कोई मासूम क्यों मेरे लिए बदनाम हो जाए  |


अजब हालात ये यूँ दिल का सौदा हो गया आखिर 

मौहब्बत की हवेली जिस तरह नीलाम हो जाए |


समंदर के सफर में इस तरह आवाज दो हमको 

हवाएं तेज हों और कश्तियों में शाम हो जाए |


मुझे मालूम है उसका ठिकाना फिर कहाँ होगा 

परिंदा आसमान छूने में जब नाकाम हो जाए |


उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो 

ना जाने जिंदगी की किस गली में शाम हो जाए  |

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