मंगलवार, 13 अप्रैल 2021

जनवादी गीत संग्रह : 'लाल स्याही के गीत' 26- नईम के गीत

 


एक
चिट्टी पत्री ख़तो किताबत के मौसम
फिर कब आएंगे?
रब्बा जाने,
सही इबादत के मौसम
फिर कब आएंगे?
चेहरे झुलस गये क़ौमों के लू लपटों में
गंध चिरायंध की आती छपती रपटों में
युद्धक्षेत्र से क्या कम है यह मुल्क हमारा
इससे बदतर
किसी कयामत के मौसम
फिर कब आएंगे?
रब्बा जाने..........
हवालात सी रातें दिन कारागारों से
रक्षक घिरे हुए चोरों से बटमारों से
बंद पड़ी इजलास
ज़मानत के मौसम
फिर कब आएंगे?
रब्बा जाने..........
ब्याह सगाई बिछोह मिलन के अवसर चूके
फसलें चरे जा रहे पशु हम मात्र बिजूके
लगा अंगूठा कटवा बैठे नाम खेत से
जीने से भी बड़ी
शहादत के मौसम
फिर कब आएंगे?
रब्बा जाने, सही इबादत के मौसम फिर कब आएंगे?
दो
प्यासे को पानी,
भूखे को दो रोटी
मौला दे! दाता दे!!
आसमान की बात न जानूं
जनगण भाग्य विधाता दे!
धरती और आकाश न मांगूं,
या ईश्वरीय प्रकाश न मांगूं,
मांगे हूं दो गज ज़मीन बस -
मैं शाही आवास न मांगूं
पापों को पनहीं,
परधनियां मोटी-सौंटी,
सिर को साफा छाता दे।
मज़हब नहीं भीख का कोई,
भीख न होती ब्राह्मण, भोई,
अमरीका, यूरोप भले दे -
होती नहीं दूध की धोई
इनके हैं हम पांसे,
तो उनकी हम गोटी,
हमें हमारा त्राता दे!
जनगण मंगल गाथा दे।
नियम युद्ध के दफ्न हो गये
पुरखे जाने कहां से गये,
कुरूक्षेत्रों में खड़े हुए दिन -
कृष्ण न जाने कहां खो गए?
स्वजन पड़ौसों में बैठे,
भर रहे चिकोटी -
शवरी और सुजाता दे!
मौला दे! दाता दे!!
तीन
हम तुम
कोशिश ही करते रह गये जनम भर¸
लेकिन वो
जाने¸ क्यूं¸ कैसे –
रातों–रात महान हो गये?
नये संस्करण में किताब के –
शब्द असम्भव शेष नहीं अब¸
कदम–कदम सीढ़ी–दर–सीढ़ी
चलने वाला देश नहीं अब
बिना बात के मरते ही रह गये जनम भर
अनचाहे इनको आसंदी¸उनके लिए मचान हो गये |
परम्पराओं के क्या मानी¸
देश–काल हो गये असंगत
श्राद्धपक्ष ही नहीं साल भर
कौवे जीम रहे हैं पंगत
हम तुम हुक्के भरते ही रह गये जनम भर
कोढ़ खाज से गलित आचरण –
उनके आज प्रमाण हो गये |
चार
आज महाजन के पिंजरे में कैद सुआ है,
अभिशापित मनुवाँ बेचारा,
काम न आई दवा-दुआ है।
टूटी खाट जनम से अपनी,
अपलक रात जागती रहती,
इन खेतों से उन मेड़ों तक,
एड़ीं उठा भागती रहती।
भ्रष्ट व्यवस्था का आदम की
गर्दन पर खुरदरा जुवाँ है।
मनुपुत्रों की जात न पूछो
कल तक थे कंधों टखनों से,
आज भँवर में फँसे हुए ये-
हो न सके ये जन अपनों से।
मेहनत भी क्या मानी रखती?
साहस: सट्टा और जुआ है।
विधवाओं-सी सिसक रही ये
शंखध्वनि-सी भोर अभागिन
रातें स्याह-सफेद कर रहीं
संध्याएँ हो गईं बदचलन।
दाएँ है गहरी खाई तो,
बाएँ भुतहा अंध कुवाँ है।
पांच
पूछ रहे हो क्यों ग़ैरों से?
हम ही तुम्हें बता देंगे।
होगा कहाँ नईम इन दिनों
सीधा सही पता देंगे।
था जो कभी मुदर्रिस, अबके खेत रहा वो,
चढ़ा खरादों पर अपने को रेत रहा वो।
परदे, चिकें याकि जाले जो-
ओट बने गर
अगर ज़रूरी लगा कहीं तो
हम ही उन्हें हटा देंगे।
होगा वो कवि, लगा नहीं पर कभी अलग से,
वाक़िफ रहा आप जैसों की वो रग-रग से।
सहज और साधारण है जो
नहीं कहीं से भी विशिष्ट जो
आप भले देते बैठें पर
हम क्यों भला हवा देंगे?
पुरस्कार-सम्मान-रहित अति साधारण-सा,
मुजरा करते नहीं मिलेगा वो चारण-सा।
अगर मिल गया धोखे से भी
आप भला क्यों कष्ट करेंगे?
अपने मुज़रिम को देहरी से
हम ही धता बता देंगे।

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