शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2011

कवि वीरेंद्र 'अबोध '


(जन कवि वीरेंद्र 'अबोध' पेशे से किसान है | आपके साहित्य में किसानो और मजदूरों की व्यथा का मार्मिक चित्रण मिलता है | आपको कविता में प्रेमचंद कहा  जाता है |आप जनवादी लेखक  संघ की मेरठ इकाई  के संस्थापक सदस्य है| वर्तमान में आप  जलेस मेरठ के अध्यक्ष   है |)

 "माँ  और बेटा"                                      
रात के सन्नाटे में जब ठण्ड धरती पर पसर जाती है
भूखी  माँ रोते हुए अपने भूखे बेटे को समझाती है | 
सो जा बेटा सो जा नहीं तो गब्बर सिंह आ जाएगा
बच्चा बोला माँ क्या गब्बर सिंह रोटी लायेगा |


माँ बच्चे को डराती है चुप तुझे टुकड़ों में बाँट देगा
यदि गब्बर सिंह आ गया तो चाकू से काट देगा |
बच्चा अपनी माँ  से बिलकुल नहीं डरता   है
और बेखोफ होकर फिर से  सवाल करता है |
माँ क्या भूख के बदले ऑंसू पिए जाते हैं ?
 रोटी मांगने वाले चाकू से काट दिए जाते हैं ? |


माँ इसके बदले में आह भर रोने लगती है
फिर चुप हो जाती  है, होश खोने लगती है |
कहती है' 'हम गरीब तो रोटी-रोटी ही रटे हैं 
तेरे बापू रोटी मांगते हुए ही चाकू से कटे हैं|


हम गरीबो की किस्मत का यही लेखा है'' 
बेटा बोला " क्या तुमने गब्बर को देखा है ?"|
''मैंने  डाकू गब्बर सिंह को नहीं देखा, मगर 
ऐसे  अनेक डाकुओं  पर पड़ी है मेरी नजर |


जो बगुला भगत बने नशे में झूमते हैं 
कुछ गब्बर सिंह तो हमारे आस पास घूमते हैं |
हम गरीबो को रुपयों  की थैली  से तोलने वाले 
गब्बर सिंह पर पच्चास हजार का इनाम बोलने वाले|
हम गरीबो के गले पर समझ लो  खुले चाकू हैं
बेटा वे तो गब्बर सिंह से भी बड़े डाकू हैं|


बेटा में  तो कब से  गमो के  घूँट  पिए हूँ  
एक ज़माने से अपनी जबान सिये हूँ  |
तू ये   बिलकुल न समझ मैं  तुझे डरा रही हूँ 
बस तेरा गब्बर से परिचय करा रही हूँ |
सोचती हूँ अपने बाप का बदला तू ही लेगा
अवश्य  ही  सफेद पोश डाकू ख़त्म कर देगा |''


बच्चा बोला " हमारे अरमानो के किला ढह रहे हैं
माँ बताओ ये गब्बर सिंह कहाँ   रह रहे हैं |
मुझे इन लोगों के नामोनिशान चाहिए
 में  इन्हें कैसे  जानूगा कुछ तो पहचान चाहिए"|


माँ बोली "ये उचे बंगलो में लबे जाम कर रहे हैं 
चम्बल को तो बेकार बदनाम कर रहे है |
तेरे एक ही धमाके से ये सब हिल जायेंगे 
तुझे  सभाओं में भाषण देते हुए मिल जायेंगे |
तेरे जैसे  अनेक पीड़ित  जन  इन पर ऐठे  हैं
बहुत से गब्बर सिंह तो संसद में बैठे  हैं |


अपनी गोटी चलते हैं हमे काट  छांट  कर
हम गरीबो को  लड़ाते हैं आपस में बांटकर |
हमे बरगलाते कभी फूलझड़ी कभी बम फोड़कर
कभी दंगे फसाद कराकर कभी बुत तोड़कर| 


और हम है  कि अभी तक  आपस में कटे  हुए हैं 

समझते  नहीं  चाले  जाति, धर्म   में बटें  हुए हैं|
जब तक  हम खुद  नहीं लड़ेंगे बनकर अगवा 
लूटती   ही रहेंगी  हमें  सफ़ेदखादी कभी भगवा| 
भूखे  नंगो के खून से रंगेंगी  मुल्क की सरहदें  
ये लेंगें हथियारों की दलाली छोड़ शर्म और हया की हदें  |


हम भूखे  पेट नंगे बदन बेबस  चिल्लाते  रहेंगें 
ये गब्बर सिंह अनेक रूप भरकर आते रहेंगे |
माँ की बाते सुनकर बच्चे पर जनून सा छा  गया 
सोते हुए उसके सपनो में गब्बर सिंह आ गया |
गब्बर सिंह को देखकर उसका खून खोल उठा 
वह सपने में भी "इन्कलाब जिंदाबाद" बोल उठा |


उसने नन्हे नन्हे  हाथो से गब्बर सिंह को फाड़  दिया 
उसके सीने  पर खून से रंग अपना झंडा  गाड़  दिया| 
अब वो बहुत खुश था अब उसे रोटी अवश्य मिलेगी
अब कोई माँ उसकी माँ जैसी  विधवा नहीं बनेगी |
हर भारत वासी दिल का साफ़ मन  का सच्चा होगा 
और अपना प्यारा भारत सारे जहाँ  से अच्छा होगा  | 
                                                                                     -वीरेंद्र 'अबोध'

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