(जन कवि वीरेंद्र 'अबोध' पेशे से किसान है | आपके साहित्य में किसानो और मजदूरों की व्यथा का मार्मिक चित्रण मिलता है | आपको कविता में प्रेमचंद कहा जाता है |आप जनवादी लेखक संघ की मेरठ इकाई के संस्थापक सदस्य है| वर्तमान में आप जलेस मेरठ के अध्यक्ष है |)
"माँ और बेटा"
रात के सन्नाटे में जब ठण्ड धरती पर पसर जाती है
भूखी माँ रोते हुए अपने भूखे बेटे को समझाती है |
सो जा बेटा सो जा नहीं तो गब्बर सिंह आ जाएगा
बच्चा बोला माँ क्या गब्बर सिंह रोटी लायेगा |
माँ बच्चे को डराती है चुप तुझे टुकड़ों में बाँट देगा
यदि गब्बर सिंह आ गया तो चाकू से काट देगा |
बच्चा अपनी माँ से बिलकुल नहीं डरता है
और बेखोफ होकर फिर से सवाल करता है |
माँ क्या भूख के बदले ऑंसू पिए जाते हैं ?
रोटी मांगने वाले चाकू से काट दिए जाते हैं ? |
माँ इसके बदले में आह भर रोने लगती है
फिर चुप हो जाती है, होश खोने लगती है |
कहती है' 'हम गरीब तो रोटी-रोटी ही रटे हैं
तेरे बापू रोटी मांगते हुए ही चाकू से कटे हैं|
हम गरीबो की किस्मत का यही लेखा है''
बेटा बोला " क्या तुमने गब्बर को देखा है ?"|
''मैंने डाकू गब्बर सिंह को नहीं देखा, मगर
ऐसे अनेक डाकुओं पर पड़ी है मेरी नजर |
जो बगुला भगत बने नशे में झूमते हैं
कुछ गब्बर सिंह तो हमारे आस पास घूमते हैं |
हम गरीबो को रुपयों की थैली से तोलने वाले
गब्बर सिंह पर पच्चास हजार का इनाम बोलने वाले|
हम गरीबो के गले पर समझ लो खुले चाकू हैं
बेटा वे तो गब्बर सिंह से भी बड़े डाकू हैं|
बेटा में तो कब से गमो के घूँट पिए हूँ
एक ज़माने से अपनी जबान सिये हूँ |
तू ये बिलकुल न समझ मैं तुझे डरा रही हूँ
बस तेरा गब्बर से परिचय करा रही हूँ |
सोचती हूँ अपने बाप का बदला तू ही लेगा
अवश्य ही सफेद पोश डाकू ख़त्म कर देगा |''
बच्चा बोला " हमारे अरमानो के किला ढह रहे हैं
माँ बताओ ये गब्बर सिंह कहाँ रह रहे हैं |
मुझे इन लोगों के नामोनिशान चाहिए
में इन्हें कैसे जानूगा कुछ तो पहचान चाहिए"|
माँ बोली "ये उचे बंगलो में लबे जाम कर रहे हैं
चम्बल को तो बेकार बदनाम कर रहे है |
तेरे एक ही धमाके से ये सब हिल जायेंगे
तुझे सभाओं में भाषण देते हुए मिल जायेंगे |
तेरे जैसे अनेक पीड़ित जन इन पर ऐठे हैं
बहुत से गब्बर सिंह तो संसद में बैठे हैं |
अपनी गोटी चलते हैं हमे काट छांट कर
हम गरीबो को लड़ाते हैं आपस में बांटकर |
हमे बरगलाते कभी फूलझड़ी कभी बम फोड़कर
कभी दंगे फसाद कराकर कभी बुत तोड़कर|
और हम है कि अभी तक आपस में कटे हुए हैं
समझते नहीं चाले जाति, धर्म में बटें हुए हैं|
जब तक हम खुद नहीं लड़ेंगे बनकर अगवा
लूटती ही रहेंगी हमें सफ़ेदखादी कभी भगवा|
भूखे नंगो के खून से रंगेंगी मुल्क की सरहदें
ये लेंगें हथियारों की दलाली छोड़ शर्म और हया की हदें |
हम भूखे पेट नंगे बदन बेबस चिल्लाते रहेंगें
ये गब्बर सिंह अनेक रूप भरकर आते रहेंगे |
माँ की बाते सुनकर बच्चे पर जनून सा छा गया
सोते हुए उसके सपनो में गब्बर सिंह आ गया |
गब्बर सिंह को देखकर उसका खून खोल उठा
वह सपने में भी "इन्कलाब जिंदाबाद" बोल उठा |
उसने नन्हे नन्हे हाथो से गब्बर सिंह को फाड़ दिया
उसके सीने पर खून से रंग अपना झंडा गाड़ दिया|
अब वो बहुत खुश था अब उसे रोटी अवश्य मिलेगी अब कोई माँ उसकी माँ जैसी विधवा नहीं बनेगी |
हर भारत वासी दिल का साफ़ मन का सच्चा होगा
और अपना प्यारा भारत सारे जहाँ से अच्छा होगा |
-वीरेंद्र 'अबोध'
अबोध जी की सार्थक कविता के लिए मेरा साधुवाद स्वीकार करें .
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