मंगलवार, 8 फ़रवरी 2011

उम्र का पचासवाँ बसंत





                                      उम्र   का  पचासवाँ  बसंत
अपनी  उम्र का आज पचासवाँ  बसंत है| बसंत में बूढ़े पेड़ों पर भी बहार  छाने लगती है| दिनांक   5-02-2011 को  के .वी. डिग्री  कोलिज माछरा के एन.एन.एस. के छात्रो के बीच कविता पाठ का अवसर मिला| छात्रों ने खूब मन से कवितायेँ सुनी| मुझे  वे दिन याद आ गए जब  १९८३  में  मेरठ कोलिज मेरठ में  पढ़ता  था| विक्टोरिया पार्क में हमारा एन एन एस  का कैम्प लगा था| उसमें  जैसे प्रेम गीत मैंने सुनाये थे, वैसे ही प्रेम गीत यहाँ भी  सुनाये| गीत कुछ तब के थे कुछ बाद  के थे|  यादें   थी  कि  उमड़   घुमड़ आती थीं |कई डॉ दिनों से वही मनस्थिति  है| आज सुबह सवेरे ही रूमानी कविता उपजाने लगी |पता लगा कि आज तो बसंत पचंमी है| प्रेम और उल्लास का पर्व|  तो फिर आज जैसी कविता लिखी वह प्रस्तुत है
            जवानी के दिन
जवानी के दिन वो जवानी के दिन वो
मोहब्बत के किस्से कहानी के दिन वो |
गुलाबों   की रंगत   सजाये  हुए   सी
महकती हुई रात रानी के दिन   वो  |                                                                                                                                     न जाने  कहाँ हैं,    न जाने  कहाँ हैं |
जवानी के वे दिन न जाने कहाँ हैं||
वो जिसकी मोहब्बत के मैं गीत गाता
उसे हीर खुद को  हूँ   राँझा    बताता
मेरे दिल को अब भी बहुत है सताती
मेरे ख़्वाब में वो हरेक  रात  आती
वो आती थी जैसे  किताबें   उठायें
बहुत धीरे धीरे नजर को  झुकायें
वो ऐसे  ही अब भी चली आ रही है
मेरे दिल को अब भी बहुत भा रही है

इधर मैं भी उसकी डगर पर खड़ा हूँ
उसे फूल देने की जिद पे  अड़ा हूँ
मेरे पास तक आज आने दो उसको
मुझे हाल अपना बताने दो उसको
कहूँगा तुम्हारे बिना  न रहूँगा
बहुत सह लिया है नहीं अब सहूँगा
मुझे प्यार  दे दो मेरा प्यार ले लो
मेरे दिल से मेरे न दिलदार खेलों
वो चलती हुई पास मेरे है आयी
पलक उसने धीरे से ऊपर  उठायी
नजर भर के मुझको  जो  एक बार  देखा
मैं शायद कहूँ कुछ लगा उसने  सोचा
मगर मैं खड़ा चुप न मुंह खोलता हूँ  
उसे देखता   हूँ  न   कुछ बोलता हूँ
बहुत चाहा कह दूँ गया न कुछ  बोला
बहुत बार मैंने था दिल को टटोला
जो कहनी थी  मुझको वही बात कोई
लबों पर न आई बहुत आँख रोई
वो कुछ पल ठिठक करके आगे बढ़ी थी
मेरे दिल पे जैसे कि बिजली पड़ी थी
मैं पत्थर के बुत सा वहीँ पे खड़ा  हूँ
गली के न उस मोड़ से मैं मुड़ा हूँ
जहाँ से मैं जाते  उसे   देखता   था
वो मुड़कर के देखेगी ये सोचता था
ये उसकी  गली का सिरा दूसरा है
इधर मैं  उधर वो नहीं  तीसरा है
लो अब वो मुड़ेगी पलटकर के देखा
खिले फूल दिल के जगी भाग्य रेखा
उमंगें उठी फिर मेरे तन बदन में
मैं कल उससे कह दूगां  जो मेरे में
जगे रात भर सुबह खुद को सवांरा
बहुत देर  दर्पण में चेहरा   निहारा
नहीं मैंने कम कुछ कहीं खुद को पाया
वहीँ पहुंचा  फिर से जहाँ कल था आया
उसी  तय समय पर वहाँ  वो भी आई
वही पहले जैसी थी पलकें उठायी
नजर  में था उसकी न जाने क्या जादू
 रहा दिल पे मेरे ना मेरा ही काबू
जुबां सिल गयी थी न गया मझसे  बोला
मोहब्बत के ये  राज अब मैंने खोला
यही सिलसिला यूँ ही  बरसों चला था
मोहब्बत में मुझको कहाँ कुछ मिलाथा
मगर वो मेरी नौजवानी के दिन थे
बड़ी खूबसूरत कहानी के दिन थे
ये जो कुछ है मिलने बिछुड़ने का किस्सा
मेरी जिन्दगी का   बहतरीन  हिस्सा
ये किस्सा मैं तुमको सुना  तो रहा हूँ
मगर ये भी सच है बता जो रहा हूँ
मैं फिर खोजता हूँ जवानी के वो दिन
मौहब्बत की सच्ची कहानी के वो दिन
न जाने  कहाँ हैं,    न जाने  कहाँ हैं
जवानी के वे दिन जवानी के वे दिन
न जाने  कहाँ हैं,    न जाने  कहाँ हैं |
                                                  अमरनाथ  'मधुर'







3 टिप्‍पणियां:

  1. जवानी तो इस पचास पार के जीवन में कायम रहेगी -यही कामना है और भविष्यवाणी भी .जन्मदिन मुबारक हो.

    जवाब देंहटाएं
  2. विलम्ब से ही -जनम दिन की बहुत-बहुत मुबारकवाद.आपकी कवितायेँ अच्छी और प्रभावोत्पादक हैं.मैं भी मेरठ कालेज में १९६९ -७१ में पढ़ा हूँ.आज कल मेरठ में बीते दिनों पर ही 'विद्रोही स्वर'में लिख रहा हूँ.'क्रन्तिस्वर'पर भ्रामक भारतीयता एवं भ्रामक धार्मिकता पर प्रहार करता रहता हूँ.

    जवाब देंहटाएं
  3. आदरणीय माथुर जी
    धन्यवाद |आपके ब्लॉग में कॉलिज टाइम की यादें पढ़कर ही अपने वक्त की बातें लिखने को मन करता है | अपने वक्त के प्रोफ़ेसर तथा साथी याद आते रहते हैं कभी उनके बारें में लिखूंगा |
    अमरनाथ 'मधुर'
    मो. ९४५७२६६९७५

    जवाब देंहटाएं