'शहर तुम्हारा गाँव हमारा '
ये पथरीला शहर मुबारक तुम्हें सनम|
मुझको मेरे गाँव की गलियाँ बुला रही ||
धुँआ उगलती यहाँ मिलों की चिमनियाँ
एक विषैली गंध हवा में छाई है |
वहाँ खेत में पीली सरसों झूम रही
सोंधी महक लिए बहती पुरवाई है |
ये धुंधियाली शाम मुबारक तुम्हें सनम
मुझको सूरजमुखी की कलियाँ बुला रही ||
उजला मुखड़ा लिए हुए हर क़ाला दिल
रंग बदलता पल पल क्या विश्वास करूं |
जब मंदिर को लूट रहा आराध्य स्वयं
और किसी से कैसी क्या मैं आस करूं |
मीठी मीठी बात मुबारक तुम्हें सनम
मुझको भोली भाली बतियाँ बुला रही ||
तुम चाहो मुझको यूँ जैसे गमले में
यहाँ गुलाब का फूल उगाया जाता है |
मैं कैसे सह जाऊं बोलो यह बंधन
मुझको तो वनफूल का जीवन भाता है |
ये गमले के फूल मुबारक तुम्हें सनम
मुझको सूरजमुखी की कलियाँ बुला रही ||
आसमान में बदली के संग उड़ने को
वनपाखी सा मचल मचल जाता है मन |
शीशमहल क्यों मुझे बनायें है बंदी
मैं न जी पाउँगा पिंजरे का जीवन |
ये चिड़ियाघर रहे मुबारक तुम्हें सनम
मुझको बागों में कोयलियाँ बुला रही | |
एक अधूरी चाह लिए अपने मन में
वापिस गाँव चला जाउंगा मैं अपने |
हाँ मुस्काने बाँध न पाएंगी मुझको
और न बहका पायेंगें छलिया सपने |
ये डिस्को ओ डांस मुबारक तुम्हें सनम
मुझको ढोलक की थपकियाँ बुला रही ||
--अमरनाथ 'मधुर'
FEB 1983
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें