(गॉंव की दुर्दशा को चित्रित करती कई कवितायें पढने को मिलीं। खासतौर से वे कवितायें जिनमें शहर में बस गये बेटे से आर्थिक मदद मांगी गई है। वीरेन्द्र 'अबोध' की कविता 'बापू का खत 'पढने के बाद मन में विचार आया कि क्या शहरी बेटा सुखी है? वह मदद करने की स्थिति में भी है या हम यू ही मान बैठे हैं कि वह मदद नहीं करना चाहता।ऐसे ही भावों को लेकर लिखा गया गीत बेटे का खत। बहुत दिनों तक दोनों का साथ-साथ काव्यगोष्ठियों में पाठ होता रहा है। ये दोनों कवितायें पसन्द भी की गई हैं।)
बेटे का खत
मन खुश हुआ पढकर आती आती तुम्हारी याद है। |
मैं तो शहर में बस गया बस क्या गया बस फॅंस गया
मन को नहीं है सुख कोई अन्धे कुयें में धॅंस गया।
दिन रात केवल काम है तन को नहीं आराम है
फिर भी कोई खुश है नहीं ये दर्द दिन में बस गया।
मैं गॉंव का भोला बहुत शहरी हवा से बेखबर,
रिश्वत न ली न दी कभी अब कैरियर बरबाद है।
तुमने लिखा अम्मा बहुत गमगीन है बीमार है,
अब अपने हाथों पॉंवों से बिल्कुल ही अब लाचार है।
पर मैं यहॉं कैसे करू कुछ भी समझ आता नहीं
बाबा तुम्हारी बहुरिया पूरे दिनों की नार है।
अब सोचता हूँ फण्ड से पैसे अगर मिल जायें कुछ
मैं गॉंव उसको भेज दू अम्मा को जापा याद है। |
तुमने लिखा है गॉंव का सब हाल अब बदहाल है,
हर हाथ खाली है वहॉं हर पेट सूखी खाल है,
बाबा यहॉं भी शहर में हालात कुछ अच्छे नहीं
छःछः महीने हो गये हर मील मे हडताल है।
वेतन नहीं, बोनस नहीं, लटकी अधर मे नौकरी?
नेता हमारे कह रहे शोषण है पूँजीवाद है ।।
तन पेट अपना काटकर जो कुछ भी हमने जोडा है
दिन रात की मॅंहगाई ने कुछ भी नहीं अब छोडा है।
बच्चे किताबे मॉंगते बिन फीस टीचर डॉंटते,
सब्जी कभी मिलती नहीं आटा बचा बसा थोडा है।
कुछ सुबह औ शाम टयूशन पढा घर जेसे तैसे चल रहा,
लेकिन किराया कमरे का कैसे चुके यह साध है।।
कोई नहीं कुछ सोचता, कोई नहीं कुछ बोलता,
लाला मिलावट करके भी क्यों माल कम है तोलता
क्यों पेट उसका मोटा है क्यों बाट उसका खोटा है,
क्यों बेजरूरी बात वो मीठी जुबॉं में बोलता।
मजबूरियॉं हैं इस कदर कैसे करें टेढी नजर,
क्या दाम लेता लिखता है किसको यह रहता याद है।।
ऐसे में बाबा बोलो तो क्या रूपयों का बन्दोबस्त हो
अपना ही भरना पेट जब मुश्किल हो हिम्मत पस्त हो।
मैं तो यहॉं ये सोचता था घर से पैसे लाउंगा
मुझको भला मालूम क्या तुम आप ही तंगदस्त हो।
जैसे भी हो ये जिन्दगी जीनी पडेगी ही हमें,
अब गॉंव क्या और शहर क्या जीवन हुआ बेस्वाद है।|
ये शहर है सम्बन्ध की कीमत यहॉं कुछ भी नहीं,
मतलब की बातें खूब हैं, दुख दर्द का अनुबन्ध नहीं।
जब तक तुम्हारी जेब भारी सब तुम्हारे साथ हैं
जब जेब खाली हो गयी रहता कोई पाबन्ध नहीं।
गॉंव के रिश्ते भले रहमत चचा हैं राम के,
शहर में घनश्याम को राधा न रखती याद है।।
गॉंवों की धरती छोडकर उखडी जडें लेकर यहॉं
ये जो शहर में आ बसे, अपनत्व है इनमें कहॉं।
ये चाहते हैं जिस तरह भी हो सके पैसा मिले,
तन मन विषैला कर रही शहरी हवा जहरी धुंआ
बाबा शहर की ये हवा घर गॉंव अपना न छुये
अपना सलोना गॉंव तो वैसे भी एक अपवाद है।|
- -अमरनाथ 'मधुर'

मधुर जी, बहुत ही मार्मिक रचना है, दिल को छूने वाली.
जवाब देंहटाएंबधाई स्वीकार करें.