मंगलवार, 28 जून 2011

कविता --परिन्दे मुझसे बोले - डॉ0 सत्यपाल सत्यम्


                   
       
[ डॉ0 सत्यपाल सत्यम हिंदी काव्य मंचों के लोकप्रिय  कवि हैं | कविता और व्यवहार में मृदुता के  साथ   स्पष्ट वैचारिक  प्रतिबध्दता आपकी विशेषता है | आपकी एक विशेषता यह भी है कि आपने संस्थागत  शिक्षा प्राप्त नहीं की, वरन  मिडिल क्लास  के बाद स्वाध्याय से शिक्षा प्राप्त कर विभिन्न रोजगार करते हुये वर्त्तमान में अध्यापक पद पर कार्यरत हैं |आपकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं |]   
                                                        
 परिन्दे मुझसे बोले


परिन्दे मुझसे बोले, आ खुले आकाश के दिन हैं । 
मैं  कैसे  छोड दूँ    मेरे प्रिय के पास के दिन हैं ।।

घटा झुककर गुजरती है,
                  हवा छूकर निकलती है।
हमारा ध्यान रखकर धूप
                  उगती और ढलती है ।

यहीं मौसम ठहर जाये मेरे मधुमास के दिन हैं।
मैं कैसे छोड  दूँ  मेरे प्रिय के पास के दिन हैं ।।

मुझे मालूम है दुनियॉं में सब 
                     चलते मुसाफिर हैं
जहॉं आराम मिलता हो
                मगर ऐसे भी तो घर हैं

सफर में जो रहे उनके भी तो अवकाश के दिन हैं।
मैं  कैसे  छोड  दूँ  मेरे  प्रिय के पास  के दिन हैं ।।

इशारे पर किसी के आज 
                  तक ये जिन्दगी जी है
किसी ने गम कहा तो गम,
                 खुशी बोले खुशी जी है

मगर अब गम नहीं,खुशियों के ही एहसास के दिन हैं।
मैं  कैसे  छोड दूँ  मेरे  प्रिय के पास  के  दिन हैं ।।

तनिक सी उम्र में हमने 
                 बहुत उचाईयॉं देखी 
मुहब्बत के बिना पर 
                खोखली गहराईयॉं देखीं

भुलाकर नफरते उल्फत के अब आभास के दिन हैं।  
मैं कैसे छोड दूँ   मेरे प्रिय के पास के दिन हैं ।।

मुझे सावन सॅंवारे है
                मुझे फागुन सजाये है
कभी होली, कभी रसिया, 
                 कभी मल्हार गाये है

कन्हैया और राधा से रसीले रास के दिन हैं।                               
मैं कैसे छोड दू मेरे प्रिय के पास के दिन हैं ।।

                        डॉ0 सत्यपाल सत्यम्

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