जलता हुआ गॉंधी का वतन देख रहा हूँ ।
पुस्तक की जगह हाथ में गन देख रहा हूँ ।
कैसे विवेकानन्द बने कल कोई बच्चा
पीढी में चरित्रों का पतन देख रहाहूँ ।
जाता नहीं है फर्क वो बेटी का, बहु का
बांटे हैं दहेजों ने कफन देख रहा हूँ ।
तुलसी, कबीर, सूर के दोहे नहीं गाते,
फिल्मी धुनों में सबको मगन देख रहा हूँ ।
‘गंभीर’ जात पांत के झगड़े नहीं जाते
मैं फिर भी एकता का सपन देख रहाहूँ |
डॉ0 ईश्वर चन्द ‘गंभीर‘
संदेशपरक गजल है,इसका प्रचार होना चाहिए.
जवाब देंहटाएं