जिसने वन तक साथ निभाया मोह त्याग कर घर का, जिसने पद -रज उठा राम की मस्तक पर रख ली थी, जिसने पति को परमेश्वर की अनुपम संज्ञा दी थी,
जिसने पाप किसे कहते हैं? कभी नहीं सोचा था, यानि स्वप्न तक में भी तो परपुरूष नहीं देखा था, जिसके नाजुक तलुवों ने जंगल के खार सहे थे, जिसके तन-मन सदा राम के ताबेदार रहे थे
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जिसकी ऑंखें मे केवल प्रभु की सूरत रहती थी, जिसके अंतर में कर्त्तव्यों की गंगा बहती थी, जिसकी लटें राम की खातिर खुली और संवरी थी, अग्नि परीक्षा तक में भी जो पूर्ण खरी उतरी थी,
उस सीता से श्रीराम मुख अपना मोड गये हैं, मर्यादा पुरूषोत्तम ही मर्यादा तोड गये हैं| चारित्रिक अपराध, अगर होगा रावण का होगा, जिसने बल का कर प्रयोग सीता का हरण किया था,
यदि ताकतवर जंजीरों में बॉंध रहा निर्बल को. तब तक है यह बंध किन्तु मन भला कहॉं बंधित है? क्या रावण से छुडा सिया को इसीलिये लाना था, ताकि बिना अपराध दण्ड की रस्मों को अपनाए,
और जानकी के पुण्यों को आज भुला कर राघव, मर्यादा के आदर्शो को नए मोड पर लाएं, वही राम जो राम पूछते फिरते थे जंगल में, पशुओं से पक्षियों द्रुमों से क्या सीता देखी है,
वही राम जिसकी ऑंखों के अश्रु नहीं थमते थे, पत्नी के वियोग में जिनकी जीवित देह जली है, वही राम जो सीता जी के चोरी हो जाने पर, दुनिया के हर आकर्षण से खुद को दूर किये थे,
वही राम जो निज जीवन को सार रहित कह कह कर, देह त्याग देने तक का भारी संकल्प लिये थे, आज वही मर्यादाओं का पालन करने वाले, अपनी ही सीता की खातिर यह क्या बने हुये हैं,
यह कैसी मर्यादा है कुछ समझ में नहीं आता, इतने बडे दण्ड नारी को अब तक नहीं मिले हैं लौगों के भ्रम का शिकार वह नारी क्यों हो जाये, जिसका कोई पाप नहीं अपराध नहीं जीवन में,
और उसी नर के द्वारा जिस नर की खातिर उसने, चौदह वर्ष जिन्दगी के बरबाद कर दिए वन में| आह! राम क्यों भूल गये सीता के अहसानों को, धोबी के निर्मूल्य व्यंग्य का ऐसा दण्ड दिया है,
जिसके अंतर में पूजा के दीपक जले तुम्हारी, कलंकित किया और निष्फल वनवास दिया है जिसने निस्संकोच तुम्हारीऑंखों के ऑंसू को, अपनी पलकों की झोली में हंसकर डाल लिया है।
राम तुम्हारी मर्यादा को चार चॉंद लग पाते, एक बार पत्नि की खातिर फिर वनवासी होते, उस सीता को आप अकेली फिर क्यों जाना पडा, जो सीता बिन दण्ड बॉंटने पति का दण्ड चली थी|
सीता के अभाव में सॉंसों का क्रम जारी रहना, राम तुम्हारे महा प्रेम को सीमित कर देता है, धीरज का उपदेश हमें लगता है बचकाना सा, सीता का वनवास हृदय को खंण्डित कर देता है,
पहले गयी तुम्हारे कारण अब भी तुम कारण हो, नारी की सामर्थ्य धरा पर नापे नहीं नपी है, जहॉं-जहॉं पति घिरा कष्ट में वहीं-वहीं बेचारी, पतिव्रत धर्म पालती नारी निसंकोच गई है।
लोक लाज का डर जो होता है असत्य अपना कर, जनता का विश्वास सत्य के द्वारा प्राप्त हुआ है, और सत्य को सन्देहों के कारण ठुकरा कर भी , ठुकराने वाला जनता प्यारा नहीं बना बना है।
सच्चाई के लिये मनुज फॉंसी तक पर चढते हैं खाते हैं लाठियॉं और बेखोफ गरल पीते हैं व्यंग्य पूर्ण वाणी के द्वारा बने हुये घावों को, साहस, धैर्य, विवकेशील के धागों से सीते हैं,
कैसा यह विधि का विधान यह अमिट भाग्य का लेखा, त्यागी, और तपस्वी भी तो क्या-क्या दुःख ढोते हैं, कैसे साधारण पुरूषों को सकंट व्याकुल करते, महापुरूष भी जग में आकर बच्चों से रोते हैं |
वाल्मिकी रामायण की यह हृदय विदारक घटना, निज अन्तर में जाने क्या-क्या प्रश्न समेट रही है, प्रभु जिस निर्णय पर आये वह उचित था या कि अनुचित था, किसने हो निष्पक्ष बात यह अब तक साफ कही है,
इसीलिये तो रामचरित मानस से महाकाव्य में, तुलसी जैसे कवि ने इस घटना को छोड दिया है, उन्हें ज्ञात था लाखों-लाखों मुह एक साथ खुलेंगे, इसीलिये तो मानस का रूख कवि ने मोड दिया है,
एक ओर सीता की खातिर युद्व किया रावण से, और बालि वध कर भ्राता की पत्नि मुक्त करायी| अपने पावन चरणों से पाषाण शिला को छूकर, प्रभु ने स्वंय अहिल्या को शापो से मुक्ति दिलाई|
स्वयं गये रघुवीर हृदय में करूणा भाव समेटे, निर्धन शबरी के प्यासे नयनों की प्यास बुझाने, भक्ति प्रेम का इससे बढकर पुरस्कार क्या होगा, शबरी के झूठे बेरों को लगे राम जब खाने,
नारी के प्रति क्या ऐसा सम्मान कहीं मिलता है, क्या इससे बढकर मर्यादा किसी ग्रन्थ में होगी, एक ओर फिर सूर्पनखा के नाक कान कटते हैं, और अयोध्या त्याग जानकी होती हैं वनवासी,
ऐसे जटिल सवालों का कोई जबाब मुश्किल है, हम ठहरे अल्पज्ञ कहें कुछ तो क्या कह सकते हैं, तर्कशक्ति से दूर भावनाओं के मग में चलकर, सीता माता की खातिर बस ऑंसू बह सकते हैं,
एक तरफ यह सत्य, बडे हैं हाथ महा पुरूषों के, एक तरफ सब अवतारों की अपनी सीमायें हैं, कही-कही ऐसी ताकत जो सब पर छा जाती है, कही-कही र्दुर्बल मनुष्यों जैसी दुर्बलतायें हैं,
प्रभु लीलाओं की खातिर लेते हैं जन्म धरा पर,
रोना - हॅंसना, रहना-सहना सब मनुजों जैसा है, वो पैगम्कर रसूल हों, महापुरूष हो कोई, सबने लेकर जन्म धरा के कष्टों को भोगा है,
सीता का वनवास ओर फिर पश्चातापों का क्रम, सच्चाई से दूर कहॉं सच्चाई की मन्जिल है जल समाधि की आवश्यकता अपनाई रघुवर ने,
इससे बड़ा प्रमाण पराजय का मिलाना मुश्किल है|
इससे बड़ा प्रमाण पराजय का मिलाना मुश्किल है|
धोबी के कहने पर राम ने सीता को नहीं निकाला था। सीता ने राम के अधिनायकवाद के विरुद्ध विद्रोह किया था जिसमे उन्हें वाल्मीकि,विश्वमित्र ,भारद्वाज आदि-आदि ऋषियों का समर्थन प्राप्त था। 'सीता का विद्रोह'लेख मे मैंने 'क्रांतिस्वर' पर स्पष्ट किया है।
जवाब देंहटाएंदंत-कथाओं को मानना,अवतारवाद को मानना सच्चाई से मुंह चुराना है।
अत्यंत प्रभावशाली कविता .बधाई .
जवाब देंहटाएंसुन्दर कविता
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