जिंदगी डूबी अँधेरे में कोई दीपक जलाओ|
चेतना भी खो गयी है जागरण के गीत गाओ|
आज भौतिक सुख हमारी आँख के काजल हुए हैं,
रोशनी से खुशबुओं के रंग तक ओझल हुए हैं|
तैरता यौवन हमारा आज पशिम की हवा में,
रूह जैसे दिग्भ्रमित है और हम बादल हुए हैं|
इन तिमिर की घाटियों में ज्योति का उत्सव मनाओ ||
जिंदगी डूबी अँधेरे में कोई दीपक जलाओ|
छू रहा ऊँचाइयाँ पर आदमी नभ तो नहीं है,
चमत्कारों से वो रचनाकार तो हतप्रभ नहीं है|
आदमी के लिए साधन ही हुए हैं साध्य अब तो,
सांस में रच बस रही जो गंध, सौरभ तो नहीं है|
सोच का बदले कलेवर आज ऐसा मन बनाओ |
जिंदगी डूबी अँधेरे में कोई दीपक जलाओ|
भूल अपनी भूमि का भटका हुआ है अब उजाला,
नित नये तेवर लिए हर और तम का बोलबाला,
सूर्य के वंशज,बिछाये हैं बिसाते, आज छल की,
और हम निकले पिरोने नव सर्जन की गीतमाला|
आज शुभ संकल्प ले सवेंदना के स्वर सजाओ |
जिंदगी डूबी अँधेरे में कोई दीपक जलाओ| -यशपाल कौत्सायन
सार्थक रचना, सुन्दर प्रस्तुति के लिए बधाई स्वीकारें.
जवाब देंहटाएंसमय- समय पर मिली आपकी प्रतिक्रियाओं , शुभकामनाओं, मार्गदर्शन और समर्थन का आभारी हूँ.
"शुभ दीपावली"
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मंगलमय हो शुभ 'ज्योति पर्व ; जीवन पथ हो बाधा विहीन.
परिजन, प्रियजन का मिले स्नेह, घर आयें नित खुशियाँ नवीन.
-एस . एन. शुक्ल