शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2011

अध्ययन -राग दरबारी - लेखक श्रीलाल शुक्ल


{श्रीलाल शुक्ल  ने आजादी के बाद भारतीय समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार,पाखंड,अंतरविरोध और विसंगतियों पर गहरा प्रहार किया था। वह समाज के वंचितों और हाशिए के लोगों को न्याय दिलाने के पक्षघर थे।जनवादी लेखक संघ मेरठ उनके निधन पर शौक व्यक्त करता है |उनके निधन से  हिंदी  साहित्य  की अपूर्णीय  क्षति हुई है उनके  विख्यात उपन्यास 'राग दरबारी' का एक जीवंत अंश  प्रस्तुत है }
चमरही' गांव के एक मुहल्ले का नाम था जिसमें चमार रहते थे। चमार एक जाति का नाम है जिसे अछूत माना जाता है। अछूत एक प्रकार के दुपाये का नाम है जिसे लोग संविधान लागू होने से पहले छूते नही थे। संविधान एक कविता का नाम है जिसके अनुच्छेद १७ में छुआछूत खत्म कर दी गयी है क्योंकि इस देश में लोग कविता के सहारे नहीं बल्कि धर्म के सहारे रहते हैं और क्योकिं छुआछूत इस देश का एक धर्म है, इसलिए शिवपालगंज में भी दूसरे गांवो की तरह अछूतों के अलग-अलग मुहल्ले थे और उनमें सबसे ज्यादा प्रमुख मुहल्ला चमरही था जिसे जमीदारों ने किसी जमाने में बड़ी ललक से बसाया था और उस ललक का कारण जमीदारों के मन में चर्म-उद्योग का विकास करना नहीं था बल्कि यह था कि वहां बसने के लिए आनेवाले चमार लाठी अच्छी चलाते थे। संविधान लागू होने के बाद चमरही और शिवपालगंज के बाकी हिस्से के बीच एक अच्छा काम हुआ था। वहां एक चबूतरा बनवा दिया गया था, जिसे गांधी-चबूतरा कहते थे। गांधी, जैसे कि कुछ लोगों को आज भी याद होगा, भारतवर्ष में ही पैदा हुए थे और उनके अस्थि-कलश के साथ ही उनके सिद्धांन्तों को संगम में
बहा देने के बाद यह तय किया गया था कि गांधी की याद में अब सिर्फ़ पक्की इमारतें बनायी जायेंगी और उसी हल्ले में शिवपालगंज में यह चबूतरा बन गया था। चबूतरा जाड़ों में धूप खाने के लिए बड़ा उपयोगी था और ज्यादातर उस पर कुत्ते धूप खाया करते थे; और चूंकि उनके लिए कोई बाथरूम नहीं बनवाया जाता है इसलिए वे धूप खाते-खाते उसके कोने पर पेशाब भी कर देते थे और उनकी देखादेखी कभी-कभी आदमी भी चबूतरे की आड़ में वही काम करने लगते थे।

मास्टर के गुट ने देखा कि उस चबूतरे पर आज लंगड़ आग जलाकर बैठा है और उस पर कुछ भुन रहा है। नजदीक से देखने पर पता लगा कि भुननेवाली चीज एक गोल-गोल ठोस रोटी है जिसे वह निश्चय ही आसपास घूमनेवाले कुत्तों के लिए नहीं सेंक रहा था। लंगड़ को देखते ही मास्टरों की तबीयत हल्की हो गयी।

उन्होंने रूककर उससें बात करनी शुरू कर दी और दो मिनट में मालूम कर लिया कि तहसील में जिस नकल के लिए लंगड़ ने दरख्वास्त दी थी, वह अब पूरे कायदे से, बिना एक कौड़ी गलत ढ़ग से खर्च किये हुए, उसे मिलने वाली ही है।

मास्टर लोगो को यकीन नहीं हुआ।

लंगड़ की बातचीत में आज निराशावाद; धन-नियतिवाद-सही-पराजयवाद-बटा-कुण्ठावाद का कोई असर न था। उसने बताया ,"बात मान लो बापू। आज मैं सब ठीक कर आया हूं। दरख्वास्त में दो गलतियां फ़िर निकल आयी थी, उन्हें दुरूस्त करा दिया है।"

एक मास्टर ने खीजकर कहा,"पहले भी तो तुम्हारी दरख्वास्त में गलती निकली थी। यह नकलनवीस बार-बार गलतियां क्यों निकाला करता है? चोट्टा कहीं का!"

"गाली न दो बापू,"लंगड़ ने कहां,"यह धरम की लड़ाई है। गाली-गलौज का कोई काम नहीं। नकलनवीस बेचारा क्या करे! कलमवालों की जात ही ऎसी है।"

"तो नकल कब तक मिल जायेगी?"

"अब मिली ही समझो बापू-यही पन्द्रह बीस दिन। मिसिल सदर गयी है। अब दरख्वास्त भी सदर जायेगी। नकल नही बनेगी, फ़िर वह यहां वापस आयेगी; फ़िर
रजिस्टर पर चढ़ेगी...."

लंगड़ नकल लेने की योजना सुनाता रहा, उसे पता भी नही चला कि मास्टर लोग उसकी बात और गांधी-चबूतरे के पास फ़ैली हुई बू से ऊबकर कब आगे बढ़ गये। जब उसने सिर ऊपर उठाया तो उसे आसपास चिरपरिचित कुत्ते, सुअर और घूरे भर दिखायी दिये जिनकी सोहबत में वह दफ़्तर के खिलाफ़ धरम की लड़ाई लड़ने चला था।




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