शनिवार, 12 नवंबर 2011

गजल -वही आरजू वही जुस्तजू


वो ही आरजू वो ही जुस्तजू वो ही कशमकश है जो कम नहीं 
कभी दिल की चोटों में दर्द सा कभी फिकरे सोजो अलम नहीं |


मुझे दे तो जौके नजर वो दे तुझे हर मुकाम से देख लूँ 
के पसंद मेरे मिजाज को ये तजाये दे दैरो हरम नहीं | 


यहाँ बच के चल मेरे हमसफ़र कहीं मुस्करा के ना लूट लें 
ये मेरे शहर के ग़जाल हैं तेरे बुतकदे के सनम नहीं |


वो ही रबते बाहम का सिलसिला चलो छोड़ो तुमंने कता किया 
ये अजाबो कहरो इताब क्यों जो निगाहें लुतफे करम नहीं |


करे खुद पै महमूद नाज क्या उसे दौरे-हाजिर ने क्या दिया?
जो शऊरे-शेरो सुखन मिला तो मताऐ लौहे कलम नहीं |
                                                                     -महमूद 'मेरठी'

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