रविवार, 29 जनवरी 2012

कवि गोरख पाण्डेय:



      आधुनिक हिन्दी के भाषा के कितने कवि साहित्य जगत के साथ साथ जनमानस में भी अपना स्थान बनाने हुये हैं इसकी कोई प्रमाणिक संख्या तो शायद ही किसी के पास हो किन्तु जिन कुछ एक कवियों को यह  स्नेह प्राप्त हुआ है उनमें गोरख पाण्डेय का नाम प्रमुख रूप् से लिया जायेगा। गोरख पाण्डेय प्रखर मार्क्सवादी चिन्तक तथा प्रतिबद्ध जनवादी कवि थे। उनका जन्म सन 1945 में ग्राम  पंडित के मुन्देरावा जिला देवरिया उत्तर प्रदेश में हुआ था | देहाती ब्राहमण परिवार में जन्म लेने के बावजूद उन्होंने सायास अपने आपको ढोंगी, अंधविश्वासी एवं कर्मकाण्डी होने से बचा लिया। अच्छे खाते पीते घर का होने के बावजूद स्वयं को क्रान्तिकारी किसान संघर्षों  की  आग में तपाया। वे बाबा नागार्जुन की तरह जन संघर्षों की अगुवाई के साथ साथ साहित्य के हर खेमे  में समान रूप से प्रतिष्ठित रहे। उनके काव्य संग्रह जागते रहो सोने वालो पर उन्हें ओमप्रकाश साहित्य सम्मान मिला।किन्तु उनका महत्व किसी भी सम्मान /पुरस्कार से प्रतिश्ठित होने की अपेक्षा भेजपुरी भाषा के सबसे लोकप्रिय कवि होने में है। वे ऐसे कवि थे जिनके रचे हुये लोकगीत भोजपुरी भाषी लोगों के कंठहार बन गये।
      भोजपुरी के बहुत  से लोकगायकों को यह भले ही न मालूम हो कि जिस लोकगीत को वे गा रहे हैं उसका रचियता भारत की सबसे प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी जे0 एन0यू0 में प्रोपेसर हैकिन्तु उन्हें यह एहसास जरूर रहा होगा कि जनमन की पीडा और संघर्षों को जो राह लोकगीतों के माध्यम से मिल रही है वह वही है जिसकी तलाश मेहनतकश जनता सदियों से करती रही है। जनता का विश्वास और साहस किस तरह जाग उठा है उसे गोरख पाण्डेय के लोकगीत  'गुलमियॉं अब हम नहीं बजाईबो में' देखिये-

गुलमियॉं अब हम नहीं बजाईबो अजदिया हमरा के भरेलो
मरे जंगरवा से धरती फुलाले, फुलवा में खुशबु भरेले
हमको बनुरिया से सईल बेदखली तोहरे मतिआई चलेले
धरतिया अब हम नाहीं गॅंवईबो बानुनिया हमरा के भवेले।

    हमारे जंगल में धरती फलती है, फूलो में खशबु भरती है। तुम्हारे मालिकों के चेले बन्दूक की नोक से हमें धरती से बेदखल करना चाहते हैं। अब हम धरती नहीं गवाईगें। देखेंगें बन्दूकें हमरा क्या कर लेंगी? अब हम गुलामी नहीं करेंगें देखेंगें अजदहा हमारा कया कर लेगा। 
    कवि  गोरख पाण्डेय ने इसी प्रकार के सैकडों गीतों के माध्यम से जन साधरण को सामन्ती अत्याचार और शोषण के विरूद्ध लडने का साहस प्रदान किया। लेकिन इसी के साथ साथ उन्होंने जनता को उन लोगों से भी सावधान किया जो गरीबी हटाओं का नारा देकर गरीब को ही मिटने में लग गये। ऐसे लौग जो जनता के क्रान्तिकारी आंदलनों  को यह कहकर शान्त करने का प्रयास करते कि समाजवाद धीरे धीरे आयेगा। जनता को ऐसे धेखेबाज समाजवादी ध्वजवाहकों की पोल खोलने हुये अपनी सर्वाधिक प्रसिद्ध कविता समाजवाद बबुआ धीरे धीरे आयी में गोरख पाण्डेय कहते हैं-
समाजवाद बबुआ धीरे धीरे आयी, 
नोटवा से आयी/ वोटवा से आयी/ 
बिडला के घर में समायी/ 
समाजवाद बबुआ धीरे धीरे आयी। 
लाटी से आयी गोली से आयी/
लेकिन अहिंसा कहाई/
 समाजवाद बबुआ धीरेधीरे आई/
         कवि  गोरख पाण्डेय के प्रसिद्ध गीतों में प्रमुख हैं-होइहें गरीब के गरीब सहाई, जनता के आये पलटनियॉं, पहिले जब वोट मॉंगे आईले, केंकरे नापे जमीन पटवारी, सुरभईल किसान के लडाईयॉं, और मेहनता का बारहमासा।
        कवि गोरख पाण्डेय की रचनाओं  से अपरिचित व्यक्ति को यह भ्रम हो सकता ह कि गोरख पाण्डेय केवज भेजपुरी भाष के कवि हैंकिन्तु सत्य यह यह है कि अपने अल्प जीवन काल में उन्होंने राष्ट्भाषा हिन्दी को ऐसी प्रखर और मर्मस्पर्शी कवितायें से समृद्ध किया है कि उन्हें  निराला और नागार्जुन जैसे कवियों के समकक्ष न भी स्वीकार करें तब भी व्यंग्य के पेनेपन और भाव की भव्यता की दृष्टि से साहित्य जगत में उन्हें निराला और नागार्जुन के समकक्ष स्थान प्रदान किया जायेगा। वस्तुत गोरख पाण्डेय इसके सच्चे हकदार हैं भी। उनके तीखे तेवर काकर्शन कराने वाली उनकी प्रसिद्ध कविता खूनी पंजा देखिये-
 यह खूनी पंजा किसका है
ये जो मुल्क पे आग सा बरसा है, 
ये जो शहर पे आग सा बरसा है 
बोलो यह पंजा किसका है 
यह खूनी पंजा किसका है। 
पेट्रोल  छिडकता जिस्मों पर, 
हर जिस्म पे लपटे उठवाता 
हर ओर मचाता कत्लेआम 
ऑंसू  और खून में लहराता 
पगडी उछालता हम सबकी, 
बूढों  का सहारा छिनवाता 
सिन्दूर पोंछता बहुओं का 
बच्चों के खिलौने लुटवाता
बोलो यह पंजा किसका है? यह खूनी पंजा किसका है?
कविता  के सामाजिक सन्दभों को यदि हम छोड भी दे तो यह देश के हालात को बयान करती हुई दिखायी देगी। वस्तुत सत्ता का जनविरोधी और दमनकारी चरित्र नहीं बदला करता। इसलिये उसकी पहचान कराते हुये गोरख पाण्डेय जनता को हकुमत के खिलाफ खडे होने के लिये ललकारते हैं ताकि देश की अखण्डता सुरक्षित रह सके। वे कहते है-
यह पंजा नादिरशाह का है, 
यह पंजा हर हिटलर का है 
ये जो शहर पे आग सा बरसा है 
यह पंजा हर जालिम का है 
ए लोगों इसे तोडो वरना 
हर जिस्म के टुकडे कर देगा 
हर दिल के टुकडे कर देगा 
यह मुल्क के टुकडे कर देगा। 
        कवि  गोरखपाण्डेय अपने वतन को दिलो जान  से चाहने वाले इन्सान थे। वे अपने देश की बर्बादी  सहन नहीं कर सकते थे। उन्होंने एक ऐसे खुशहाल देश का सपना देखा था जिसमें सब बराबर हों। जहॉं जुबानों पर पाबन्दियॉं न हों। आज जब अभिव्यक्ति की आजादी पर पहरे के वकालत की जा रही है तथा प्रजातंत्र की प्रमुख पहचान अभिव्यक्ति की आजादी को सीमित करने की कोशिश की जारही है ऐसे में कवि गोरख पाण्डेय याद आते हैं। वतन का गीत उन्होंने यूं  गाया-
 हमारे वतन की नई जिन्दगी हो, 
नई जिन्दगी एक मुकममल खुशी हो
न् हो कोई राजा न हो रंक कोई 
सभी हों बराबर सभी आदमी हों
जुबानों पे पाबन्दियॉं न हों कोई, 
नई जिन्दगी एक मुकममल खुशी हो
हमारे वतन की नई जिन्दगी हो, 
नई जिन्दगी एक मुकममल खुशी हो
       अपने देशवासियों के लिये अपनी ऑंखों में सुनहरे स्वप्न रखनेवाले कवि गोरख पाण्डेय हकीकत से अनजान स्वप्नजीवी व्यक्ति न थे।वे जानते  थे कि जनसंघर्षा को कदम कदम पर मुश्किलों का सामना करना पडता है। वे जानते थे जनान्दजनों को भितरघातियों से भी उतना ही खतरा होता है जितना प्रत्यक्ष शत्रुओं से।
 हवा का रूखा कैसा है हम समझते हैं, 
हम उसे पीठ क्यों देते हैं हम समझते हैं
हम इतना समझते हैं कि समझने से डरते हैं 
और चुप रहते हैं चुप्पी का मतलब भी हम समझते हैं।
           यह सब समझने की सवेंदना और उससे उत्पन्न पीडा के कवि गोरख पाण्डेय को विक्षिप्त सा कर दिया। 29-01-1989    उन्होंने आत्महत्या कर ली।वे  आत्महत्या  न करते तो बहुत संभव था कि शोषण दमन पर आधारित व्यवस्था की पोषक शक्तियॉं उन्हें मार डालतीं।क्योंकि जैसा कि गोरख पाण्डेय पे अपनी कविता उसको फॉंसी दे दो में कहा है अपने अधिकारों को मॉगने वाली जनता की आवाज को अबाने का एकमात्र उपाय निरकुंश सत्ता के पास सिर्फ यह होता है  कि उसे बलपूर्वक कुचल डाले।
          वह कहता है कोरा भाषण नहीं चाहिये
           झूडे वायदे हिसा का शासन नहीं चाहिये
            भूखे नंगें लोगों की जलती छाती पर 
            नकली जनतंत्री सिंहासन नहीं चाहिये। उसको फॉंसी दे दो।
           वह  कहता है अब वह सबके साथ चलेगा, 
           वह शोषण पर टिकी व्यवस्थ को बदलेगा 
           किसी विदेशी शत्रु से वह मिला हुआ है 
           उसको इस गददारी का फल तुरत मिलेगा। 
            आओ देशभक्त जल्लादो,पूँजी  के विश्वस्थ प्यादो। उसको फॉंसी दे दो। 
 स्वयं को प्रखर राष्ट्रवादी कहने वाले पूँजी  के ताबेदार शोषण और अन्याय पर टिकी व्यवस्था के सबसे प्रबल रक्षक हैं । धर्म और संस्कृति की रक्षा के नाम पर जनता के जनवादी अधिकारों का अपहरण कर व्यवस्था के विरूद्ध उठने वाले हर विद्रोही स्वर का गला घोंट देते हैं। उसको फॉंसी दे दो कविता नकली जनतंत्र के कर्णधारों के काले कारनामों पर करारा व्यंग्य है।
    जैसा कि पहले भी कहा गया है कि कवि गोरख पाण्डेय यदि आत्महत्या न करते तो वयवस्था के पाषक उन्हें मार डालते । वस्तुत बहुत से क्रान्तिकारी कवि , लेखक, विचारक या सामाजिक ओर कार्यकर्ता या निहित स्वार्थी यथास्थितिवादियों द्वारा मार डाले गये या उन्हें आत्महत्या करनी पडी।इस क्रम में गणेश शकर विद्यार्थी,भगत सिंह, मान बहादुर,उमेश डोभाल,गोरख पाण्डेय, सईद एहसान जाफरी जैसे अनेक लागों कानाम गिनाया जा सकता है। शोषण और उत्पीडन के विरूद्ध आवाज उठाने वालो लोगों का मार दिया जाना तो समझ में आता है लेकिन उनका आत्महत्या कर लेना किसी समस्या का समाधान नहीं लगता।
       वस्तुत यह उन लोगों की हताशा को ही प्रदर्शित करता है जो लौग क्रान्ति को जादुई परिवर्तन की चीज समझते हैं। जो क्रान्ति को एक सतत प्रक्रिया नहीं समझते जिन लोगों के लिये इन्कलाब तुरत फुरत की पीज है जिन लागों के पास व्यवस्था से निरन्तर लडने और लडते हुये मरकर भी क्रान्ति की लौ को जिनदा रचाने की ख्वाहिश नहीं है जो लौग चाहते हैं कि आज जन संगठनों में शामिल हों , कल उसके नेता बनेऔर परसों क्रान्ति सम्पन्न हो जाये वे लौग हताश होंगें ही। जब वे हताश होंगें तब या तो  विचारधारा को गरियाते हुये विपक्ष से गलबहियॉं करेंगें अथ्वा आत्महतया कर लेंगें। इन सबसे अलग नितान्त वैयक्तिक कारणों से भी आदमी आत्महत्या कर सकता है जैसा कि कहा जाता है गोरख पाण्डेय ने की है।  किन्तु यदि गोरख पाण्डेय जैसा विचारक भी  आत्महत्या जैसा पलायनवादी कर्म करता है तो फिर यह समझना बडा मुश्किल होगा कि वे कैसे कहते  हैं कि समय का पहिया धीरे-धीरे कैसे चलता है और तूफानों के बीच अमर जीवन का अकुर पनपता है। कवि गोरख पाण्डेय तो तूफानों से हार गये किन्तु  हम उनके गाये गीत को अब  भी उसी विश्वास से दोहराते हैं जिस विश्वास से उन्होंने लिखा था -
  समय का पहिया चले रे साथी समय का पहिया चले
 फौलादी घोडों की गति से आग बर्फ में जले रे साथी। 
                                                      समय का पहिया चले।
  
   

         



                                                                                                  -अमरनाथ 'मधुर' 


شاعر گوركھ پاڈےي :


      جدید ہندی کے زبان کے کتنے شاعر ادب کی دنیا کے ساتھ ساتھ جنمانس میں بھی اپنا مقام بنانے ہیے ہیں اس کی کوئی پرماك تعداد تو شاید ہی کسی کے پاس ہو لیکن جن چند ایک شاعروں کو یہ محبت حاصل ہوا ہے ان میں گوركھ پاڈےي کا نام سربراہ روپ سے لیا جائے گا. گوركھ پاڈےي پركھر مارکسی چنتك اور پر عزم جنوادي شاعر تھے.  ان کی پیدائش سن 1945 میں گرام پنڈت کے مندےراوا ضلع دیوریا اتر پردیش میں ہوا تھا |  دیہاتی براهم خاندان میں پیدا ہونے کے باوجود انہوں نے ساياس اپنے آپ کو ڈھوگي ، ادھوشواسي اور كرمكاڈي ہونے سے بچا لیا. اچھے کھاتے پیتے گھر کا ہونے کے باوجود خود کو انقلابی کسان سگھرشو کی آگ میں تپایا. وہ بابا ناگارجن کی طرح عوامی سگھرشو کی قیادت کے ساتھ ساتھ ادب کے ہر خیمے میں یکساں طور پر باوقار رہے. ان کے شاعری مجموعہ جاگتے رہو سونے والو پر انہیں اوم پرکاش ادب احترام ملا. لیکن ان کا اہمیت کسی بھی احترام / ایوارڈ سے پرتشٹھت ہونے کی توقع بھےجپري زبان کے سب سے مقبول شاعر ہونے میں ہے. وہ ایسے شاعر تھے جن کے تحریر ہوئے لوكگيت بوجھپوری بولنے والے لوگوں کے كٹھهار بن گئے.
      بوجھپوری کے بہت سے لوكگايكو کو یہ بھلے ہی نہ معلوم ہو کہ جس لوكگيت کو وہ گا رہے ہیں اس کا رچيتا بھارت کی سب سے معزز یونیورسٹی جے 0 ن 0 یو 0 میں پروپےسر هےكنت انہیں یہ احساس ضرور رہا ہوگا کہ جنمن کی پيڈا اور سگھرشو کو جو راہ لوكگيتو کے ذریعے سے مل رہی ہے وہ وہی ہے جس کی تلاش مےهنتكش عوام صدیوں سے کرتی رہی ہے. عوام کا اعتماد اور حوصلہ کس طرح جاگ اٹھا ہے اسے گوركھ پاڈےي کے لوكگيت ' گلمي اب ہم نہیں بجايبو میں 'دیکھیے --

گلمي اب ہم نہیں بجايبو اجديا همرا کے بھرےلو
ںيہ مرے جگروا سے زمین پھلالے ، پھلوا میں كھشب بھرےلے
ہم کو بنريا سے سيل بےدكھلي توهرے متاي چلےلے
دھرتيا اب ہم ناہیں گويبو باننيا همرا کے بھوےلے.

    ہمارے جنگل میں زمین پھلتي ہے ، پھولو میں كھشب بھرتی ہے. تمہارے مالکان کے چیلے بندوق کی نوک سے ہمیں زمین سے بے دخل کرنا چاہتے ہیں. اب ہم زمین نہیں گوايگے. دےكھےگے بندوكے همرا کیا کر لیں گی؟ اب ہم غلامی نہیں کریں گے دےكھےگے اجدها ہمارا کیا کر لے گا. 
    شاعر گوركھ پاڈےي نے اسی طرح کے سینکڑوں گیتوں کے ذریعے عوامی سادھر کو سامنتي ظلم اور استحصال کے خلاف لڈنے کی جرات فراہم کیا. لیکن اسی کے ساتھ ساتھ انہوں نے عوام کو ان لوگوں سے بھی ہوشیار کیا جو غربت هٹاو کا نعرہ دے کر غریب کو ہی مٹنے میں لگ گئے. ایسے لوگ جو عوام کے انقلابی ادلنو کو یہ کہہ کر شانت کرنے کی کوشش کرتے کہ سوشلزم دھیرے دھیرے آئے گا. عوام کو ایسے دھےكھےباج سماج وادی دھوجواهكو کی پول کھولنے ہوئے اپنی سب سے زیادہ مشہور نظم  سوشلزم ببا دھیرے دھیرے آئی  میں گوركھ پاڈےي کہتے ہیں --
سوشلزم ببا دھیرے دھیرے آئی ، 
نوٹوا سے آئی / ووٹوا سے آئی / 
بڈلا کے گھر میں سمايي / 
سوشلزم ببا دھیرے دھیرے آئی. 
لاٹي سے آئی گولی سے آئی /
لیکن عدم تشدد كهاي /
 سوشلزم ببا دھيرےدھيرے آئی /
         شاعر گوركھ پاڈےي کے مشہور گیتوں میں سربراہ ہیں -- هوهے غریب کے غریب سهاي ، عوام کے آئے پلٹني ، پہلے جب ووٹ مانگے ايلے ، كےكرے ناپے زمین پٹواری ، سربھيل کسان کے لڈايي ، اور مےهنتا کا بارهماسا.
        شاعر گوركھ پاڈےي کی تخلیقات سے اپرچت شخص کو یہ بھرم ہو سکتا پآ کہ گوركھ پاڈےي كےوج بھےجپري بھاش کے شاعر هےكنت سچ یہ ہے کہ اپنے کم زندگی کے زمانے میں انہوں نے راشٹبھاشا ہندی کو ایسی پركھر اور مرمسپرشي كوتايے سے خوشحال کیا ہے کہ انہیں نرالا اور ناگارجن جیسے شاعروں کے ہم منصب نہ بھی تسلیم کریں تب بھی ويگي کے پےنےپن اور بھاو کی شوقت کی نگاہ سے ادب کی دنیا میں انہیں نرالا اور ناگارجن کے ہم منصب جگہ فراہم کیا جائے گا.وستت گوركھ پاڈےي اس کے سچے حقدار ہیں بھی. ان کے تیکھے تیور كاكرشن کرانے والی ان کی مشہور نظم  خونی پجا  دیکھیے --
 یہ خونی پجا کس کا ہے
یہ جو ملک پہ آگ سا برسا ہے ، 
یہ جو شہر پہ آگ سا برسا ہے 
بولو یہ پجا کس کا ہے 
یہ خونی پجا کس کا ہے. 
پٹرول چھڈكتا جسموں پر ، 
ہر جسم پہ لپٹے اٹھواتا 
ہر طرف مچاتا كتلےام 
آنسو اور خون میں لہراتا 
پگڈي اچھالتا ہم سب کی ، 
بوڈھو کا سہارا چھنواتا 
سندور پوںچھتا بهو کا 
بچوں کے کھلونے لٹواتا
بولو یہ پجا کس کا ہے؟ یہ خونی پجا کس کا ہے؟
شاعری کے سماجی سندبھو کو اگر ہم چھوڑ بھی دے تو یہ ملک کے حالات کو بیان کرتی ہوئی دکھائی دے گی. وستت اقتدار کا جنورودھي اور تشدد پسندحکمت کردار نہیں بدلا کرتا. پس اس کی شناخت کراتے ہوئے گوركھ پاڈےي عوام کو هكمت کے خلاف کھڑے ہونے کے لئے للكارتے ہیں تاکہ ملک کی اكھڈتا محفوظ رہ سکے. وہ کہتے ہیں --
یہ پجا نادرشاه کا ہے ، 
یہ پجا ہر ہٹلر کا ہے 
یہ جو شہر پہ آگ سا برسا ہے 
یہ پجا ہر ظالم کا ہے 
اے لوگوں اسے توڈو ورنہ 
ہر جسم کے ٹكڈے کر دے گا 
ہر دل کے ٹكڈے کر دے گا 
یہ ملک کے ٹكڈے کر دے گا. 
        شاعر گوركھپاڈےي اپنے وطن کو دلو جان سے چاہنے والے انسان تھے. وہ اپنے ملک کی بربادی برداشت نہیں کر سکتے تھے. انہوں نے ایک ایسے خوشحال ملک کا خواب دیکھا تھا جس میں سب برابر ہوں. جہاں جبانو پر پابندي نہ ہوں. آج جب اظہار کی آزادی پر پهرے کے وکالت کی جا رہی ہے اور جمہوریت کی سربراہ شناخت اظہار کی آزادی کو محدود کرنے کی کوشش کی جارهي ہے ایسے میں شاعر گوركھ پاڈےي یاد آتے ہیں. وطن کا گیت انہوں نے یوں گایا --
 ہمارے وطن کی نئی زندگی ہو ، 
نئی زندگی ایک مكممل خوشی ہو
ن ہو کوئی بادشاہ نہ ہو رك کوئی 
تمام ہوں برابر تمام آدمی ہوں
جبانو پہ پابندي نہ ہوں کوئی ، 
نئی زندگی ایک مكممل خوشی ہو
ہمارے وطن کی نئی زندگی ہو ، 
نئی زندگی ایک مكممل خوشی ہو
       اپنے ملک کے باشندوں کے لئے اپنی آنکھوں میں سنہرے خواب ركھنےوالے شاعر گوركھ پاڈےي حقیقت سے انجان سوپنجيوي شخصیت نہ تھے ، وہ جانتے تھے کہ جنسگھرشا کو قدم قدم پر مشکلات کا سامنا کرنا پڑتا ہے. وہ جانتے تھے جناندجنو کو بھترگھاتيو سے بھی اتنا ہی خطرہ ہوتا ہے جتنا راست دشمنوں سے.
 ہوا کا روكھا کیسا ہے ہم سمجھتے ہیں ، 
ہم اسے پیٹھ کیوں دیتے ہیں ہم سمجھتے ہیں
ہم اتنا سمجھتے ہیں کہ سمجھنے سے ڈرتے ہیں 
اور چپ رہتے ہیں خاموشی کا مطلب بھی ہم سمجھتے ہیں.
           یہ سب سمجھنے کی سوےدنا اور اس سے پیدا پيڈا کے شاعر گوركھ پاڈےي کو وكشپت سا کر دیا. 29-01-1989 انہوں نے خود کشی کر لی. وہ خود کشی نہ کرتے تو بہت ممکن تھا کہ استحصال دمن پر مبنی نظام کی غذائی شكتي انہیں مار ڈالتي. کیونکہ جیسا کہ گوركھ پاڈےي پہ اپنی شاعری اس کو پھسي دے دو میں کہا ہے اپنے حقوق کو مگنے والی عوام کی آواز کو ابانے کا واحد حل نركش اقتدار کے پاس صرف یہ ہوتا ہے کہ اسے بلپوروك کچل ڈالے.
          وہ کہتا ہے كورا تقریر نہیں چاہیے
           جھوڈے وعدے هسا کی حکومت نہیں چاہیے
            بھوکے نگے لوگوں کی جلتی چھاتی پر 
            نقلی جنتتري تخت نہیں چاہیے. اس کو پھسي دے دو.
           وہ کہتا ہے اب وہ سب کے ساتھ چلے گا ، 
           وہ استحصال پر ٹکی ويوستھ کو تبدیل 
           کسی غیر ملکی دشمن سے وہ ملا ہوا ہے 
           اس کو اس گدداري کا پھل فوری ملے گا. 
            آؤ دےشبھكت جللادو ، فنڈز   کے وشوستھ پيادو. اس کو پھسي دے دو. 
 خود کو پركھر راشٹروادی کہنے والے فنڈز کو کے تابےدار استحصال اور نا انصافی پر ٹکی نظام کے سب سے مضبوط محافظ ہیں. مذہب اور ثقافت کی حفاظت کے نام پر عوام کے جنوادي حقوق کو اغوا کر نظام کے خلاف اٹھنے والے ہر باغی سر کا گلا گھونٹ دیتے ہیں. اس کو پھسي دے دو شاعری نقلی جنتتر کے كردھارو کے کالے کارناموں پر کرارا ويگي ہے.
    جیسا کہ پہلے بھی کہا گیا ہے کہ شاعر گوركھ پاڈےي اگر خود کشی نہ کرتے تو ويوستھا کے پاشك انہیں مار ڈالتے. وستت بہت سے انقلابی شاعر ، ادیب ، وچارك یا سماجی طرف کارکن یا پنہاں خود غرض يتھاستھتواديو کی طرف سے مار ڈالے گئے یا انہیں خود کشی کرنی پڑی. اس ترتیب میں گنیش شکر طالب علم ، بھگت سنگھ ، مان بہادر ، امیش ڈوبھال ، گوركھ پاڈےي ، سعید احسان جاپھري جیسے کئی لاگو كانام گنايا جا سکتا ہے. استحصال اور اتپيڈن کے خلاف آواز اٹھانے والو لوگوں کا مار دیا جانا تو سمجھ میں آتا ہے لیکن ان کا خود کشی کر لینا کسی مسئلے کا حل نہیں لگتا.
       وستت یہ ان لوگوں کی مایوسی کو ہی ظاہر کرتا ہے جو لوگ انقلاب کو جادوئی تبدیلیاں کی چیز سمجھتے ہیں. جو انقلاب کو ایک مسلسل عمل نہیں سمجھتے جن لوگوں کے لئے انكلاب فوری پھرت کی پيج ہے جن لاگو کے پاس نظام سے مسلسل لڈنے اور لڈتے ہوئے مر کر بھی انقلاب کا شعلہ کو جندا رچانے کی خواہش نہیں ہے جو لوگ چاہتے ہیں کہ آج عوامی تنظیموں میں شامل ہوں ، کل اس کے لیڈر بنےور پرسوں انقلاب فارغ البال ہو جائے وہ لوگ مایوس ہوں گے ہی. جب وہ مایوس ہوں گے تب یا  تو   نظریے کو گرياتے ہوئے اپوزیشن سے گلبهي گے اتھوا اتمهتيا کر لےگے. ان سب سے الگ نتانت ذاتی وجوہات کی بنا پر بھی آدمی خود کشی کر سکتا ہے جیسا کہ کہا جاتا ہے گوركھ پاڈےي نے کی ہے.   لیکن  اگر گوركھ پاڈےي جیسا وچارك بھی خود کشی جیسا پلاينوادي کرم کرتا ہے تو پھر یہ سمجھنا بڑا مشکل ہوگا  کہ  وہ کیسے کہہ تے   ہیں کہ وقت کا پہیہ دھیرے -- دھیرے کیسے چلتا ہے اور توپھانو کے درمیان امر کی زندگی کا اكر پنپتا ہے. شاعر گوركھ پاڈےي تو توپھانو سے ہار گئے  لیکن   ہم ان کے گائے گیت کو اب  بھی  اسی یقین سے دہراتے ہیں جس اعتماد سے انہوں نے لکھا تھا --
  وقت کا پہیہ چلے رے ساتھی وقت کا پہیہ چلے
 پھولادي گھوڈو کی رفتار سے آگ برف میں جلے رے ساتھی.  
                                                      وقت کا پہیہ چلے.
  
   

         



                                                                                                  -- امرناتھ 'مدھر' 

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