न जोश आता न होश खोते न मात खाके ये हाल होता।
न ख़्वाब आते अदावातों के न रंजिशों का मलाल होता॥
हमीं थे अहले-ज़ुबां शहर में हमीं ने बरती थी हौशियारी।
ज़ुबान कट्ती या सर हमरा अगर ज़ुबां पे सवाल होता॥
कभी सियासत की साज़िशों से क्भी फ़सदों की दह्शतों से।
रहे मादारिश बंद वरना क़लम हमारा म्शाल होता॥
जो आपनी पलकों पे रंजिशों में अदब के मोती सजा के रखते।
तो इस तरह क्युं फ़िर अनजुमन में अदब अदीबो हलाल होता॥
न शौक़े-गुल-बोसियों में खोते चमन की रस्मों को याद रखते।
चमन का गोशा,शजर,शगुफ़ा ए बाग़बां बे-मिसाल होता॥
ख्याले सरहदों नहीं था हां बस ख़्याले-सुलतनियत था सब को।
टुकडे ही क्युं वतन के होते जो सरहदों का ख़्याल होता॥
न चौखटों पे युं तिलमिलाते वो भूके मासूम नातवां से।
न पेट होता न भूक होती न इतना जीना मुहाल होता....
न ख़्वाब आते अदावातों के न रंजिशों का मलाल होता॥
हमीं थे अहले-ज़ुबां शहर में हमीं ने बरती थी हौशियारी।
ज़ुबान कट्ती या सर हमरा अगर ज़ुबां पे सवाल होता॥
कभी सियासत की साज़िशों से क्भी फ़सदों की दह्शतों से।
रहे मादारिश बंद वरना क़लम हमारा म्शाल होता॥
जो आपनी पलकों पे रंजिशों में अदब के मोती सजा के रखते।
तो इस तरह क्युं फ़िर अनजुमन में अदब अदीबो हलाल होता॥
न शौक़े-गुल-बोसियों में खोते चमन की रस्मों को याद रखते।
चमन का गोशा,शजर,शगुफ़ा ए बाग़बां बे-मिसाल होता॥
ख्याले सरहदों नहीं था हां बस ख़्याले-सुलतनियत था सब को।
टुकडे ही क्युं वतन के होते जो सरहदों का ख़्याल होता॥
न चौखटों पे युं तिलमिलाते वो भूके मासूम नातवां से।
न पेट होता न भूक होती न इतना जीना मुहाल होता....
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मासूम गाज़ियाबादी - معصوم گاذيابادي |
نہ جوش آتا نہ ہوش كھوتے نہ شکست سانچے یہ حال ہوتا.
نہ خواب آتے اداواتو کے نہ رجشو کا ملال ہوتا.
ہمیں تھے اہل - ذبا شہر میں ہمیں نے برتی تھی هوشياري.
زبان كٹتي یا سر همرا اگر ذبا پہ سوال ہوتا.
کبھی سیاست کی ساذشو سے كبھي فسدو کی دهشتو سے.
رہے مادارش بند ورنہ قلم ہمارا مشال ہوتا.
جو اپني پلکوں پہ رجشو میں ادب کے موتی سجا کے رکھتے.
تو اس طرح كي فر انجمن میں ادب اديبو حلال ہوتا.
نہ شوقے - گل - بوسيو میں كھوتے چمن کی رسمو کو یاد رکھتے.
چمن کا گوشہ، شجر، شگفا اے باغبا بے - مثال ہوتا.
كھيالے سرحدوں نہیں تھا ہاں بس خيالے - سلتنيت تھا سب کو.
ٹكڈے ہی كي وطن کے ہوتے جو سرحدوں کا خیال ہوتا.
نہ چوكھٹو پہ ي تلملاتے وہ بھوكے معصوم ناتوا سے.
نہ پیٹ ہوتا نہ بھوک ہوتی نہ اتنا جینا محال ہوتا ....
نہ خواب آتے اداواتو کے نہ رجشو کا ملال ہوتا.
ہمیں تھے اہل - ذبا شہر میں ہمیں نے برتی تھی هوشياري.
زبان كٹتي یا سر همرا اگر ذبا پہ سوال ہوتا.
کبھی سیاست کی ساذشو سے كبھي فسدو کی دهشتو سے.
رہے مادارش بند ورنہ قلم ہمارا مشال ہوتا.
جو اپني پلکوں پہ رجشو میں ادب کے موتی سجا کے رکھتے.
تو اس طرح كي فر انجمن میں ادب اديبو حلال ہوتا.
نہ شوقے - گل - بوسيو میں كھوتے چمن کی رسمو کو یاد رکھتے.
چمن کا گوشہ، شجر، شگفا اے باغبا بے - مثال ہوتا.
كھيالے سرحدوں نہیں تھا ہاں بس خيالے - سلتنيت تھا سب کو.
ٹكڈے ہی كي وطن کے ہوتے جو سرحدوں کا خیال ہوتا.
نہ چوكھٹو پہ ي تلملاتے وہ بھوكے معصوم ناتوا سے.
نہ پیٹ ہوتا نہ بھوک ہوتی نہ اتنا جینا محال ہوتا ....
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