रविवार, 15 जुलाई 2012

गुवाहाटी की चीख

ब्लॉग:'' जानकी  पुल'' से साभार   

गुवाहाटी के गले से चीख निकली है



युवा कवि त्रिपुरारि कुमार शर्मा की कविता. इसके बारे में अलग से कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है, 
कविता अपने आप में सब बयान कर देती है- जानकी पुल.
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गुवाहाटी के गले से
 चीख निकली है 
चीख, जिसमें दर्द है, घुटन भी है 
चीख, जिसमें रेंगती चुभन भी है 
चीख, जिसमें सर्द-सी जलन भी है 
चीख, जिसमें लड़की का बदन भी है


उस चीख के सन्नाटे में महसूस करता हूँ 
कि मोहल्ले की सभी लड़कियाँ असुरक्षित हैं  
बोझ से झुक रहा है मेरा माथा 
माथे से काले धुएँ का एक सोता फूट पड़ा है


मैं शर्मिंदा हूँ अपने कानों पर 
मुझे झूठे लगते हैं उस मुँह से निकले हुए शब्द 
जो कहते हैं कि हमने
कृष्ण
, बुद्ध, महावीर, नानक और कबीर को जन्म दिया है   


मुझे इस धरती पर यक़ीन नहीं आता 
(कि जिसपर मेरे पाँव अब भी जमे हैं)जो सोना उगलने की बात करती है 
मैं भतीजे को कभी ये क़िस्सा नहीं सुनाऊँगा 
कि सिकंदर भारत से क्यों लौट गया था


मेरी पुतलियों पर 
गर्भ में मरी बच्ची का चेहरा उभरता है 
पीली पड़ती जाती है सिसकती हुई एक काली कोख
मैं अपनी साँस छिड़क रहा हूँ अंधी आग में 
और कुछ गीदड़ मेरी बरौनियों पर नाच रहे हैं


मैंने अपनी बहन से कहा है 
हो सके तो मेरे सामने मत आना कुछ रोज़ 
छोटा भाई, घर के सारे आईने फेंक रहा है 
माँ ने मेरे बालों में तेल डालने से इंकार कर दिया है
मैं नहीं सोच पाता हूँ 
कि बाबूजी होते तो क्या कहते/करते इस वक़्त


दिल्ली 
14 जुलाई 2012 

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