-प्रकृति ने हमें एक धरती सोंपी थी जिसे हमने देशों में बाँट दिया है. प्रकृति ने मनुष्य को प्रथ्वी पर अन्य प्राणियों की तरह ही उत्पन्न किया है और जिन्दा रहने का उसको भी जन्मजात अधिकार दिया है .किसी देश के क़ानून के अनुसार उसे इस अधिकार से वंचित करना नैसर्गिक न्याय नहीं कहा जा सकता है . इसलिए वक्त का तकाजा है कि एक विश्व न्यायालय का गठन किया जाए जहाँ किसी देश के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गयी सजा के विरुद्ध न्याय की अपील की जा सके. इस विश्व न्यायालय को मानवाधिकारों के विरुद्ध फैसला देने वाले न्यायधीशों के विरुद्ध भी सुनवाई और सजा का अधिकार होना चाहिए. अगर एक इंटरपोल हो सकती है तो एक विश्व न्यायालय भी हो सकता है.उदारीकरण और वैश्वीकरण के इस युग में न्यायिक सेवाओं का भी वैश्वीकरण किया जाना चाहिए और अंतर्राष्ट्रीय विधिवेत्ताओं की सेवाएँ लेने की व्यवस्था की जानी चाहिए .इससे एक तो गुनाह और न्याय की सार्वभौमिक समझ विकसित होगी दूसरे कोई आरोपी समुचित सुनवाई के अवसर से वंचित नहीं होगा.आखिर ये कैसा न्याय है और कैसी विधिक प्रक्रिया है जिसमें एक आरोपी का पक्ष रखने के लिए देश का कोई अधिवक्ता तैयार नहीं है और फिर भी कहा जा रहा है कि न्याय किया गया है ? यह गूँगें के बयान को सबूत मानने जैसा है.आज भले ही हम अंध राष्ट्रभक्ति के उन्माद में कुछ न देखना सुनना चाहें लेकिन अगर इसी तरह न्याय होता रहा तो न्याय का ये जानलेवा फंदा किसी की भी गर्दन में कभी भी कसा जा सकता है और आप सहमत हों या असहमत तब उसका ओचित्य सिद्ध करने के लिए भी सत्ता समर्थकों के कुछ न कुछ तर्क होंगे . आज तो आप खामोश हैं लेकिन तब आप क्या करेंगें ?
कुमार पंकज - - दिक्कत ये है, इस सिलसिले में कहीं तो रुकना पड़ेगा....
स्थानीय अदालत पर सवाल उठे तो हाई कोर्ट गये...हाई कोर्ट पर सवाल उठे तो सुप्रीम कोर्ट गये....सुप्रीम कोर्ट पर सवाल उठे तो राष्ट्रपति के पास गये......अब अपने देश के हर उस व्यक्ति पर शक है जो इस देश के संविधान और क़ानून के अनुसार काम कर रहा है...
तो तय किया की एक अंतरराष्ट्रीय न्यायाधीश फ़ैसला सुनाए......कल वो अपना फ़ैसला सुनाएगा तो प्रश्न उठाना की वो "अमेरिका" के दबाव में काम करते हैं....जैसा सवाल बाकी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं पर उठाया जाता है.....
उसके बाद एक अखिल सौर-मंडलीय न्यायालय का गठन किया जाए.....वहाँ भी नासमझ लोग हो सकते हैं....
फिर एक अखिल-आकाशगन्गीय न्यायालय का गठन किया जाए....शायद कोई पर-ग्रहवासी ही सही न्याय कर पाए....
कहाँ अंत होगा इस संदेह का.....क्योंकि विज्ञान ने अभी कहा है की 'पैरेलल यूनिवर्स' भी है.....
कोई दूसरा ब्रह्मांड खोजकर वहाँ से कोई न्यायाधीश भी आयात किया जा सकता है.....ब्रह्मांड की सीमाओं से पार जाकर भी....असत्य को "अंतिम रूप से सत्य" साबित नही किया जा सकता (सादर प्रेषित )
अमर नाथ मधुर- प्रिय मित्र पंकज जी मैं जानता था कि यह सवाल जरूर उठाया जायेगा और इसी रूप में उठाया जायेगा लेकिन आपने सवाल उठाया है जिसका मैं स्वागत करता हू| आपके कुछ सवालों के जबाब में मुझे ये कहना है कि
1. जैसा कि आपने कहा कि यह सिलसिला कहॉं जाकर रूकेगा ? फिलहाल वहॉं तक जाना चाहिये जहॉं तक हम अन्य मामलों में पहुॅंच चुके हैं । मतलब कि जब बहुत से क्षेत्रों में हमने वैश्वीकरण को स्वीकार कर लिया है तो फिर न्याय क्षेत्र का घेरा ही क्यों तंग रहे? हमने मानव कल्याण के लिये संयुक्त राष्ट्र संघ और उसकी सहयोगी संस्थाओं और संगठनों में सहभागिता स्वीकार की है। अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय को भी स्वीकृति प्रदान की है बस जिसका कार्यक्षेत्र सीमित है। वह राष्ट्रों के अपराध के लिये उन पर मुकदमा चलाता है। सन 1971 के बग्लादेश के जन संहार के लिये पाकिस्तान पर मुकदमा चलाने का प्रस्ताव था। क्या राष्ट्राध्यक्षों को यह अधिकार रहेगा कि वे अपने देश के प्रति किये गये अपराध के लिये शत्रु राष्ट के विरूद्ध हेग स्थित अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय में जायें ? आम आदमी को यह हक क्यों नहीं दिया जाना चाहिये जबकि राष्ट्र ही उसे न्याय से वचिंत करने का आरोपी हो ? आखिर व्यक्ति के बिना किसी देश के होने ना होने का क्या मतलब है? अगर व्यक्ति देश के प्रति जबाबदेह है तो देश भी व्यक्ति के सम्मानित जीवन के लिये उत्तरदायी है। कोई शासन अपने नागरिकों को मानवाधिकारों से वंचित नहीं कर सकता है।
2. जहॉं तक किसी शक्तिशाली राष्ट्र के दबाव में न्यायाधीश के कार्य करने का सवाल है तो यह अवश्य होगा लेकिन ऐसा तभी होगा जब उस राष्ट्र का हित प्रभावित होगा हरेक मामले में ऐसा नहीं होगा। आज जब एकध्रवीय विश्व है तो यह जरूरत से ज्यादा भी हो सकता है और यह हम हर मामले में स्पष्ट देख भी रहे हैं लेकिन ऐसा करने में कितना भी शक्तिशाली देश क्यों ना हो उसे पसीने आ जाते हैं। उसकी इस दादागिरी के खिलाफ सारी दुनिया में आवाजें उठ रही है स्वयं उसके देश में उसके विरूद्ध आवाजे बुलन्द हो रही हैं।क्योंकि सारी दुनिया में मानवता का हित चाहने वाले लौग हैं और इन्सानियत की आवाजें मर नहीं सकती हैं। जब तक विश्व शक्ति सन्तुलन बना हुआ था तब तक ऐसी दादागिरी कम थी अब बढ गयी है लेकिन विश्वास रखिये ये एक दिन जरूर खत्म हो जायेगी।
3. जहॉं तक सम्पूर्ण ब्रहमाण्ड का प्रश्न है तो यही कहूॅंगा कि आप तो आस्तिक आदमी हैं और जानते हैं कि हर तरह से निराश व्यक्ति यही कहता है कि मेरा इन्साफ इस दुनिया में नहीं होगा दूसरे जहॉं में होगा, मेरा इन्साफ इन्सान नहीं भगवान करेगा। अगर आप भगवान के इन्साफ पर भरोसा करते है तो इन्सान वो चाहे इस धरती का हो या किसी ओर ग्रह का उसे न्याय प्राप्ति के आखिरी सोपान तक जाने ही देना चाहिये। आखिर आप भी न्याय करने ही बैठे हैं कोई अन्याय तो नहीं कर रहे, फिर डर किस बात का है ?
4. अन्तिम बात ये है कि किसी देश को किसी कानून द्वारा किसी इंसान की जान लेने का हक तभी हो सकता है जब वो किसी मृतक को जिन्दा करने की कूवत रखता हो। अगर कोई आरोपी व्यक्ति किसी की जान लेने का अपराधी सिद्ध हो भी जाता है तो विधिक रूप से प्राणहरण करने वाला भी जान लेने के उसी अपराध का दोषी है। अपराधी के अपराध के कुछ नाजायज कारण रहे होगे जबकि न्यायाधीश और कानून निर्माता बिना किसी स्वहित के, बिना परहित के एक इन्सान की जान ले रहे हैं। क्या अपराधी की जान लेने से मृतक जिन्दा हो जाता है? क्या उस मृतक के आश्रित अपने अजीज के जिन्दा रहने पर मिलने वाले सुख को पा सकते हैं ? क्या एक की जगह दो परिवार निराश्रित नहीं हो जाते हैं ? क्या कोई सरकार इसका कोई समुचित मुवावजा दे सकती है ? इसी के साथ यह सवाल भी खडा हो जाता है कि अपराधी और समाज को प्राण दण्ड से क्या हासिल होता है? अपराधी इहलोक के सारे कष्टों से मुक्ति पा जाता है और समाज अपने स्वभाव के अनुसार हर पुरानी घटना को भूलकर नई की ओर देखने लगता है। सबक ना अपराधी को मिलता है और ना समाज कुछ सीखता है।
सबसे अच्छा यह होगा कि ऐसे अपराधी को कडी मशक्कत की सजा दी जाये और ताउम्र तन्हाई में कैद रखा जाये। उसकी सम्पत्ति का का समुचित भाग पीडित परिवार को दिया जाये। इसी के साथ अपराधी और पीडित दोनों के परिवार की स्वस्थ माहौल में परवरिश की व्यवस्था सरकार करे।लेकिन ऐसे झंझट में कौन पडे?ऐसी सोच से आज हुकुमत नहीं चलती है। राष्ट्रसेवा का सबसे सरल सूत्र है फॉंसी। हल्दी लगे ना फिटकरी रंग चोखा खाये।
کمار پنکج - دقت یہ ہے، اس سلسلے میں کہیں تو رکنا پڑے گا ....مقامی عدالت پر سوال اٹھے تو ہائی کورٹ گئے ... ہائی کورٹ پر سوال اٹھے تو سپریم کورٹ گئے .... سپریم کورٹ پر سوال اٹھے تو صدر کے پاس گئے ...... اب اپنے ملک کے ہر اس شخص پر شک ہے جو اس ملک کے آئین اور قانون کے مطابق کام کر رہا ہے ...تو طے کیا کی ایک بین الاقوامی عدالت فیصلہ سنائے ...... کل وہ اپنا فیصلہ سناےگا تو سوال اٹھانا کی وہ "امریکہ" کے دباؤ میں کام کرتے ہیں .... جیسا سوال باقی بین الاقوامی اداروں پر اٹھایا جاتا ہے ... ..اس کے بعد ایک کل شمسی - مڈليي عدالت کی تشکیل کی جائے ..... وہاں بھی ناسمجھ لوگ ہو سکتے ہیں ....پھر ایک کل - اكاشگنگيي عدالت کی تشکیل کی جائے .... شاید کوئی پر - گرهواسي ہی صحیح انصاف کر پائے ....کہاں آخر ہوگا اس شک کا ..... کیونکہ سائنس نے ابھی کہا ہے کہ 'پےرےلل یونیورس' بھی ہے .....کوئی دوسرا کائنات كھوجكر وہاں سے کوئی جج بھی درآمد کیا جا سکتا ہے ..... کائنات کی حدود سے پار جا کر بھی .... باطل کو "آخری طور سے سچ" ثابت نہیں کیا جا سکتا (مؤدبانہ بھیجیں)امر ناتھ مدھر - عزیز دوست پنکج جی میں جانتا تھا کہ یہ سوال ضرور اٹھایا جائے گا اور اسی شکل میں اٹھایا جائے گا لیکن آپ نے سوال اٹھایا ہے جس میں خیر مقدم کرتا هو، ورنہ ایسے سرپھرے سوالوں پر لوگ چپ رہنا بہتر سمجھتے ہیں. آپ کے کچھ سوالات کے جواب میں مجھے یہ کہنا ہے کہ1. جیسا کہ آپ نے کہا کہ یہ سلسلہ كه جا کر روكےگا؟ فی الحال وہاں تک جانا چاہئے جہاں تک ہم دیگر معاملات میں پهچ چکے ہیں. مطلب کہ جب بہت سے علاقوں میں ہم نے گلوبلائزیشن کو قبول کر لیا ہے تو پھر انصاف علاقے کا گھیرا کیوں تنگ کر رہے؟ ہم نے انسانی فلاح و بہبود کے لئے اقوام متحدہ اور اس کی اتحادی اداروں اور تنظیموں میں اشتراک قبول کی ہے. بین الاقوامی عدالت کو بھی منظوری فراہم کی ہے بس جس کا دائرہ محدود ہے. وہ ریاست کے جرائم کے لئے ان پر مقدمہ چلاتا ہے. سن 1971 کے بگلادےش کے عوامی سهار کے لئے پاکستان پر مقدمہ چلانے کی تجویز تھی. کیا سربراہوں کو یہ اختیار رہے گا کہ وہ اپنے ملک کے لئے کئے گئے جرم کے لئے دشمن راشٹ کے خلاف هےگ واقع بین الاقوامی عدالت میں جائیں؟ عام آدمی کو یہ حق کیوں نہیں دیا جانا چاہیے جبکہ قوم ہی اسے انصاف سے وچت کرنے کا مجرم ہو؟ آخر شخصیت کے بغیر کسی ملک کے ہونے نہ ہونے کا کیا مطلب ہے؟ اگر کوئی شخص ملک کے فی جبابدےه ہے تو ملک بھی شخصیت کے عزت زندگی کے لئے ذمہ دار ہے. کوئی حکومت اپنے شہریوں کو انسانی حقوق سے محروم نہیں کر سکتا ہے.2. جہاں تک کسی طاقتور متحدہ کے دباؤ میں جج کے کام کرنے کا سوال ہے تو یہ ضرور ہوگا لیکن ایسا تبھی ہو گا جب اس ملک کا مفاد متاثر ہوگا ہر معاملے میں ایسا نہیں ہوگا. آج جب اےكدھرويي دنیا ہے تو یہ ضرورت سے زیادہ بھی ہو سکتا ہے اور یہ ہم ہر معاملے میں واضح دیکھ بھی رہے ہیں لیکن ایسا کرنے میں کتنا بھی طاقتور ملک کیوں نہ ہو اسے پسینے آ جاتے ہیں. اس کی اس داداگري کے خلاف ساری دنیا میں آوازیں اٹھ رہی ہے خود اس کے ملک میں اس کے خلاف آواجے بلند ہو رہی ہیں. کیونکہ ساری دنیا میں انسانیت کا مفاد چاہنے والے لوگ ہیں اور انسانیت کی آوازیں مر نہیں سکتی ہیں. جب تک عالمی طاقت سنتلن بنا ہوا تھا اس وقت تک ایسی داداگري کم تھی اب بڑھ گئی ہے لیکن یقین ركھيے یہ ایک دن ضرور ختم ہو جائے گی.3. جہاں تک مکمل برهماڈ کا سوال ہے تو یہی كهوگا کہ آپ تو استك آدمی ہیں اور جانتے ہیں کہ ہر طرح سے مایوس شخص یہی کہتا ہے کہ میرا انصاف اس دنیا میں نہیں ہوگا دوسرے جہاں میں ہوگا، میرا انصاف انسان نہیں خدا کرے گا. اگر آپ خدا کے انصاف پر بھروسہ کرتے ہے تو انسان وہ چاہے اس زمین کا ہو یا کسی اور سیارے کا اسے انصاف کی بازیابی کے آخری سوپان تک جانے ہی دینا چاہئے. آخر آپ بھی انصاف کرنے ہی بیٹھے ہیں کوئی ناانصافی تو نہیں کر رہے، پھر ڈر کس بات کا ہے؟4. آخری بات یہ ہے کہ کسی ملک کو کسی قانون کے ذریعہ کسی انسان کی جان لینے کا حق اسی وقت ہوسکتا ہے جب وہ کسی مرتك کو زندہ کرنے کی كووت رکھتا ہو. اگر کوئی ملزم شخص کسی کی جان لینے کا مجرم ثابت ہو بھی جاتا ہے تو قانونی طور پر پراهر کرنے والا بھی جان لینے کے اسی جرم کا مجرم ہے. مجرم کے جرم کے کچھ ناجائز وجہ رہے ہو جبکہ جج اور قانون ساز بغیر کسی سوهت کے، بغیر پرهت کے ایک انسان کی جان لے رہے ہیں. کیا مجرم کی جان لینے سے مرتك زندہ ہو جاتا ہے؟ کیا اس مرتك کے منحصر اپنے عزیز کے زندہ رہنے پر ملنے والے سکھ کو پا سکتے ہیں؟ کیا ایک کی جگہ دو خاندان نراشرت نہیں ہو جاتے ہیں؟ کیا کوئی حکومت اس کا کوئی مناسب مواوجا دے سکتی ہے؟ اسی کے ساتھ یہ سوال بھی کھڑا ہو جاتا ہے کہ مجرم اور سماج کو جان سزا سے کیا حاصل ہوتا ہے؟ مجرم اهلوك کے سارے تکلیف سے نجات پا جاتا ہے اور سماج اپنے مزاج کے مطابق ہر پرانی واقعہ کو بھول کر نئی کی طرف دیکھنے لگتا ہے. سبق نہ مجرم کو ملتا ہے اور نہ معاشرے کچھ سیکھتا ہے.سب سے بہتر یہ ہوگا کہ ایسے مجرم کو سخت محنت کی سزا دی جائے اور تامر تنہائی میں قید رکھا جائے. اس کی خاصیت کا کا مناسب حصہ پيڈت خاندان کو دیا جائے. اسی کے ساتھ مجرم اور پيڈت دونوں کے خاندان کی صحت مند ماحول میں پرورش کا انتظام حکومت کرے. لیکن ایسے جھنجھٹ میں کون پڑے؟ ایسی سوچ سے آج حکومت نہیں چلتی ہے.راشٹرسےوا کا سب سے آسان فارمولا ہے پھسي. ہلدی لگے نہ پھٹكري رنگ چوکھا کھائے.ویسے آپ نے مجھے راشٹردروهي نہیں کہا اگر سدھاوادي ہوتے تو کبھی کا فتوی جاری کر چکے ہوتے.


जवाब देंहटाएंसुरेश यादव सुदर्शन- मधुर जी अपने एक सटीक और बहुत अछि बात कही हे जिसकी तरफ लोगों का ध्यान ही नहीं जाता ।और इस सिस्टम के शिकार निर्दोष भी उन्हें दोषी ही नज़र आते हें ।
Shiv Dixit -madhur ji beshak aap ka sujhaw sahi hai lekin aap ji sandarbh me kah rahe hai ..itne sal tak to mouka diya gaya ..wishwa ke kisi desh me itni der tak apna paksh rakhne ki anumati nahi di jaati ..jis sandarbh me aap kah rahe hai us aroopi ne khud apne sare arop kabool kiye ye kewal nyayadheesh ne nahi apitu sari duniya ne dekha ...ata aap nyay pranali par bebazah prashna chinha laga rahe hai ...
अमर नाथ मधुर- कहाँ आरोप कबूल किये हैं ? कोर्ट ने ही माना है कोई आरोप सिद्ध नहीं केवल जनाभावनाओं को ध्यान में रखकर ये सजा दी गयी है .इसी के साथ आप ये भी देखिये कि किसी वकील ने उसके पक्ष को नहीं रखा. अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय की बात तो बहुत दूर है उसकी यहीं ठीक से सुनवाई हो जाती .वैसे सही बात यह है कि किसी भी अपराध के लिए प्राणदंड उचित नहीं है .