बुधवार, 27 फ़रवरी 2013

राष्ट्रद्रोह का अपराध और मानवाधिकार



                    
  राष्ट्रद्रोह का अपराध क्या है? यही न कि राष्ट्र  की सत्ता पर काबिज शक्ति को आप मानने से मना करें। वह शक्ति जो राष्ट्र की सम्प्रभुता, एकता और संविधान का नाम लेकर  हर आवाज को कुचल देती है।अगर ये सब चुपचाप सहन कर लें बल्कि बढ चढकर सत्ता का साथ दें तो यह राष्ट्रभक्ति कही जायेगी और अगर कोई इसका विरोध करता है तो वह राष्ट्रद्रोही हैं, और जो  खामोश रहता है उसकी राष्ट्रभक्ति सन्देह के दायरे में रहती है। राट्रद्रोह के वाद की सुनवाई में कोई न्यायाधीश भी बहुत निष्पक्ष नहीं रह पाता है । प्रथम तो वह उस संविधान से बंधा होता है जिसके अन्तर्गत वह अभियोग पंजीकृत है और जिसके अनुसार उसे सुनवायी कर निर्णय देना है। दूसरे उसकी भावनायें भी सामान्यत वैसी ही होती हैं जैसी एक कथित और प्रचारित राष्ट्रवादी की होती है। लेकिन राष्ट्रभक्ति का ये सारा परिद्रश्य  आमतौर से राजसत्ता के इर्दगिर्द उसके पक्षधरों द्वारा निर्धारित और परिभाषित हुआ करता है।
    जहॉं तक संविधान के अनुपालन की बात है तो वह भी कोई कुरान शरीफ सी पवित्र और अपरिवर्तनीय हिदायत नहीं होती है जिसका उल्लघन न किया जा सकता हो । आखिर अगर वह इतना ही बाध्यकारी होता तो उसमें समय समय पर परिवर्तन न होते रहते । उसका उल्लघंन भी प्रकारान्तर से यह सिद्ध करता है कि उसमें सुधार की जरूरत है। यह अनेक उदाहरणों से साबित किया जा सकता है। लेकिन इसके लिये कुछ लोगों को अपनी जान की कुर्बानी देनी पडती है। सत्ता की रणचण्डी जब पर्याप्त रक्त पी चुकती है तब वह कुछ हिलने डुलने को तैयार होती है और तब भी वह वैसा हरगिज नहीं करती है जैसा जनता चाहती है या जैसी वक्त की मॉंग होती है। मॉंग से बहुत थोडा बख्शीश में मिलता है।  जो कुछ हासिल हो जाता है उसे पाने के बाद फिर कुछ और अधिकारों /सुधारों की जरूरत महसूस होती है और जननायक फिर जनता को जगाने निकल पडते हैं और फिर कुछ शूरवीर बलिवेदी पर अपना बलिदान देने आ डटते हैं फिर बली ली जाती है और राष्ट्र की कथित प्रभुसत्ता जनता की फिर कुछ वरदान दे देती है। यह सिलसिला चलता रहता है।
       आखिर ये राष्ट्र, राष्ट्रभक्ति और राष्ट्र की प्रभुसत्ता की अवधारण का निर्धारण कौन करता है? राजसत्ता ही करती है न? उसी ने राष्ट्र की प्रभुसत्ता को सर्वाेच्च बताया है। वह अपनी वैधता प्रभु अर्थात ईश्वर से प्राप्त होना बताता है। उसने उसे जनता से प्राप्त होना नही बताया है।  इसलिये जनसत्ता के सर्वोच्च होने की बात नहीं की जाती है, प्रभुसत्ता की बात की जाती है । इसीलिये जनता को जो कुछ भी दिया जाता है वो एक मेहरबानी/एहसान के तौर  पर दिया जाता है अधिकार के तौर पर नहीं दिया जाता है। इसीलिये राजसत्ता से कुछ भी प्राप्त होने पर उसके लिये धन्यवाद ज्ञापन की परम्परा चली आती है।
           आखिर ये राष्ट्र किसने बनाया है क्या ईश्वर ने या जनता ने? जैसा लोग समझते और कहते हैं यह राष्ट्र ईश्वर ने नहीं बनाया है यहॉं के बासिन्दों ने बनाया है।अगर इसे ईश्वर की देन समझा जायेगा तो फिर राष्ट्र की सम्प्रभुता और राष्ट्रद्रोह की बात होगी लेकिन अगर इसे जनता द्वारा बनाया हुआ माना जायेगा जो की  वास्तव में यह है तो फिर राष्ट्र की सम्प्रभ्ुता की नहीं जनसत्ता की बात होगी और वो सारे जनद्रोही होंगें जो राष्ट्रद्रोह के नाम पर राजसत्ता के विरूद्ध उठने वाली जनता की हर आवाज को कुचलते रहे हैं। उनका मुकदमा शासन की किसी बन्द अदालत में नहीं जनता की खुली अदालत में सुना जायेगा और उन्हें सजा भी खुलेआम चौराहे पर दी जायेगी।
    दुनिया भर में आज राष्ट्रद्रोह के  मुकदमें जिस तरह से न्यायालयों में सुने जा रहे है और जिस तरह से उन पर एकतरफा फैसले आ रहे हैं वो गहरी चिन्ता का विषय हैं। यह मानवाधिकारों का स्पष्ट उल्लघन हैं । प्रकृति ने धरती पर मनुष्य को पैदा किया है, राष्ट्र नहीं बनाये हैं। राष्ट्र का निर्माण मनुष्य ने अपनी सहूलियत के लिये किया है लेकिन मुटठी भर लोगों ने राष्ट्र पर कब्जा कर लिया है। वैश्वीकरण के वर्तमान काल में राष्ट्रीय जंजीरो से मुक्ति जरूरी है। हमने अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मानावाधिकारों का एक अधिकार पत्र स्वीकार किया है ।  जिसका अनुपालन सत्ताएं नहीं करती हैं .इसलिए जब किसी व्यक्ति पर राष्ट्रद्रोह का आरोप हो तो उसके लिये वाद अन्तर्राष्ट्रीय  न्यायालय  में दायर होना चाहिये क्योंकि उस में  राष्ट्र स्वयं एक पक्ष है इसलिये उसके अधीन कोई  सुनवायी हमेशा सन्देह के दायरे में रहेगी । अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय ही यह निर्णय दे सकता है कि राष्ट्र के हितों को वाकई कोई चोट पहुॅंची है या उसके नाम पर मनुष्य को उसके जन्मजात अधिकार से वंचित किया जा रहा है? अगर मानवाधिकारों का उल्लघन हो रहा है और राष्ट्र का बहुमत भी उस व्यक्ति के खिलाफ है तो अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय को राष्ट्र  की सम्प्रभुता की नहीं व्यक्ति के जन्मजात मानवाधिकार की रक्षा का आदेश राजसत्ता को देना होगा जो राजसत्ता पर बाध्यकारी होगा । ये नहीं हो सकता है कि कोई देश कहे कि तुम हमारे कानूनों को नहीं मानते हो इसलिये देश से बाहर चले जाओ, नही तो हम तुम्हें फॉंसी देंगें या जेल में बन्द रखेंगें। सत्ता या बहुसंख्यक जनता किसी व्यक्ति के अधिकारों का हनन नहीं कर सकती है। कानून का उल्लंघन हुआ है तो निश्चय ही कानून में बदलाव की जरूरत है और उसमें बदलाव किया जाना चाहिये।
                              --------- .अमरनाथ मधुर

وطن کا جرائم اور انسانی حقوق
  
وطن کا جرم کیا ہے؟ یہی نہ کہ ملک کے اقتدار پر قابض طاقت کو آپ تسلیم کرنے سے انکار کریں. وہ طاقت جو ریاست کی سمپربھتا، اتحاد اور آئین کا نام لے کر ایسی ہر آواز کو کچل دیتی ہے. اگر یہ سب چپ چاپ برداشت کر لیں بلکہ بڑھ مسلم بڑھ چڑھ کر اقتدار کا ساتھ دیں تو یہ الوطنی کہی جائے گی اور اگر کوئی اس کی مخالفت کرتا ہے تو وہ راشٹردروهي ہیں، اور جو خاموش رہتا ہے اس کی الوطنی شبہ کے دائرے میں رہتی ہے.راٹردروه کے واد کی سماعت میں کوئی جج بھی بہت غیر جانبدار نہیں رہ پاتا ہے. اے تو وہ اس آئین سے بندھا ہوتا ہے جس کے تحت وہ الزامات درج ہے اور جس کے مطابق اسے سنوايي کر فیصلہ دینا ہے. دوسرے اس کی بھاونايے بھی عام طور پر ویسی ہی ہوتی ہے جیسی ایک مبینہ اور تشہیر راشٹروادی کی ہوتی ہے. لیکن الوطنی کا یہ سارا پردرشي عام طور سے راجستتا کے اردگرد اس کے پكشدھرو کی طرف سے مقرر اور متعین ہوا کرتا ہے.
    
جہاں تک آئین کے عمل کی بات ہے تو وہ بھی کوئی قرآن شریف سی مقدس اور اپرورتنيي ہدایت نہیں ہوتی ہے جس کی خلاف ورزی نہ کیا جا سکتا ہو. آخر اگر وہ اتنا ہی بادھيكاري ہوتا تو اس میں وقت وقت پر تبدیلی نہ ہوتے رہتے. اس کا اللگھن بھی پركارانتر سے یہ ثابت کرتا ہے کہ اس میں بہتری کی ضرورت ہے. یہ کئی مثالوں سے ثابت کیا جا سکتا ہے. لیکن اس کے لئے کچھ لوگوں کو اپنی جان کی قربانی دینی پڑتی ہے. اقتدار کی رچڈي جب کافی خون پی چكتي ہے تب وہ کچھ ہلنے ڈلنے کو تیار ہوتی ہے اور اس وقت بھی وہ ویسا ہرگز نہیں کرتی ہے جیسا عوام چاہتی ہے یا جیسے وقت کی مانگ ہوتی ہے. مانگ سے بہت تھوڑا بكھشيش میں ملتا ہے. جو کچھ حاصل ہو جاتا ہے اسے حاصل کرنے کے بعد پھر کچھ اور حقوق / اصلاحات کی ضرورت محسوس ہوتی ہے اور جننايك پھر عوام کو جگانے نکل پڑتے ہیں اور پھر کچھ تیوٹانک بلوےدي پر اپنی قربانی دینے آ ڈٹتے ہیں پھر بلی لی جاتی ہے اور متحدہ کی مبینہ اقتدارکی بھوک عوام کی پھر کچھ موقع دے دیتی ہے. یہ سلسلہ چلتا رہتا ہے. آخر یہ قوم، الوطنی اور قوم کی اقتدارکی بھوک کی اودھار کا تعین کون کرتا ہے؟ راجستتا ہی کرتی ہے نہ؟ اسی نے متحدہ کی اقتدارکی بھوک کو سرواےچچ بتایا ہے. وہ اپنی قانونی حیثیت رب یعنی اللہ سے حاصل ہونا بتاتا ہے. اس نے اسے عوام سے حاصل ہونا نہیں بتایا ہے. اس لئے جنستتا کے سپریم ہونے کی بات نہیں کی جاتی ہے، اقتدارکی بھوک کی بات کی جاتی ہے. اسيليے عوام کو جو کچھ بھی دیا جاتا ہے وہ ایک مہربانی / احسان کے طور پر دیا جاتا ہے حق کے طور پر نہیں دیا جاتا ہے. اسيليے راجستتا سے کچھ بھی حاصل ہونے پر اس کے لئے شکریہ میمورنڈم کی روایت چلی آتی ہے.
           
آخر یہ قوم کس نے بنایا ہے کیا اللہ نے یا عوام نے؟ جیسا لوگ سمجھتے اور کہتے ہیں یہ قوم خدا نے نہیں بنایا ہے یہاں کے باسندو نے بنایا ہے. اگر اسے خدا کی دین سمجھا جائے گا تو پھر متحدہ کی سمپربھتا اور وطن کی بات ہوگی لیکن اگر اسے عوام کی طرف سے بنایا ہوا سمجھا جائے گا جو کے اصل میں یہ ہے تو پھر متحدہ کی سمپربھتا کی نہیں جنستتا کی بات ہوگی اور وہ سارے جندروهي ہوں گے جو وطن کے نام پر راجستتا کے خلاف اٹھنے والی عوام کی ہر آواز کو كچلتے رہے ہیں. ان کا مقدمہ حکومت کی کسی بند عدالت میں نہیں عوام کی کھلی عدالت میں سنا جائے گا اور انہیں سزا بھی کھلے عام چوراہے پر دی جائے گی.
    
دنیا بھر میں آج وطن کے مقدمے جس طرح سے عدالتوں میں سنے جا رہے ہیں اور جس طرح سے ان پر یکطرفہ فیصلے آ رہے ہیں وہ گہری فکر کا موضوع ہے. یہ انسانی حقوق کی واضح خلاف ورزی ہیں. قدرت نے زمین پر انسان کو پیدا کیا ہے، قوم نہیں بنائے ہیں.قوم کی تعمیر انسان نے اپنی سہولت کے لئے کیا ہے لیکن مٹٹھي بھر لوگوں نے ملک پر قبضہ کر لیا ہے. گلوبلائزیشن کے موجودہ دور میں قومی ججيرو سے نجات ضروری ہے.ہم نے بین الاقوامی سطح پر ماناوادھكارو کا ایک حق خط قبول کیا ہے. جس کا عمل ستتاے نہیں کرتی ہیں. اس لئے جب کسی شخص پر وطن کا الزام ہو تو اس کے لئے واد بین الاقوامی عدالت میں دائر نہیں ہونا چاہئے کیونکہ اس میں قوم خود ایک پارٹی ہے اس لئے اس کے تحت کوئی غیر جانبدار سنوايي ہمیشہ شبہ کے دائرے میں رہے گی. بین الاقوامی عدالت ہی یہ فیصلہ دے سکتا ہے کہ قوم کے مفادات کو واقعی کوئی چوٹ پهچي ہے یا اس کے نام پر انسان کو اس کے پیدائشی حق سے محروم کیا جا رہا ہے؟ اگر انسانی حقوق کی خلاف ورزی ہو رہی ہے اور متحدہ کی اکثریت بھی اس شخص کے خلاف ہے تو بین الاقوامی عدالت کو قومی سمپربھتا کی نہیں شخصیت کے پیدائشی انسانی حقوق کی حفاظت کا حکم راجستتا کو دینا ہوگا جو راجستتا پر بادھيكاري ہوگا. یہ نہیں ہو سکتا ہے کہ کوئی ملک کہے کہ تم ہمارے قوانین کو نہیں مانتے ہو اس لئے ملک سے باہر چلے جاؤ، نہیں تو ہم تمہیں پھسي دےگے یا جیل میں بند ركھےگے. اقتدار یا اکثریتی عوام کسی شخص کے حقوق کی خلاف ورزی نہیں کر سکتی ہے. قانون کی خلاف ورزی ہوئی ہے تو یقینا قانون میں تبدیلی کی ضرورت ہے اور اس میں تبدیلی کیا جانا چاہئے.
                               
. امرناتھ مدھر


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