अगर देश में वास्तविक लोकतंत्र हो तो 'हमारी आवाज' भी सुनी जाए. हमारी संसद ने जनता को एक महत्व पूर्ण अधिकार दिया है 'सूचना का अधिकार' | इस अधिकार ने जनता को अपने अन्य अधिकारों के प्रति जागरूक होने में मदद की है और प्रशासनिक मशीनरी की मनमर्जी पर एक हद तक लगाम लगाने का काम किया है.लेकिन एक कडुवा सच ये भी है कि इसे कुछ शरारती और दलाल किस्म के लोगों ने सरकारी अधिकारियों, कर्मचारियों को ब्लैक मेल कर धन ऐंठने का जरिया बना लिया है.ऐसी स्थिति में जब कर्मचारियों की भर्ती नहीं हो रही है और जो हैं वो काम के बोझ से बुरी तरह से दबे हैं तब सूचना के अधिकार के कार्यकर्ताओं ने इस जन हितेषी अधिकार का दुरुपयोग करके सरकारी कर्मचारियों की नाक में दम कर दिया है. इसका दुरुपयोग रोकने के उपाय होने चाहिए लेकिन इसकी कोई परवाह ही नहीं कर रहा है.सबके दिमाग में एक ही बात है सरकारी कर्मचारी काम चोर हैं हरामखोर हैं उन्हें जितना परेशान किया जाए उतना ठीक है.
खैर कोई बात नहीं .सरकारी कर्मचारियों को भी पता है कि देश में आजादी चाहे सबको मिली हो उन्हें नहीं मिली है. वो सार्वजनिक रूप से न कुछ कह सकते हैं और न ही संसद या विधान सभा में बैठ सकते हैं. किन्तु मुद्दा आज ये नहीं है मुद्दा ये है कि कोर्ट ने कहा है कि राजनीतिक दलों को भी आर टी आई के तहत माँगने पर सूचनाएं देनी चाहियें.बस साहब भूचाल आ गया है.दूसरों के लिए तमाम तरह के क़ानून बनाने वाले क़ानून के खुदा स्वयं को क़ानून के तहत नहीं लाना चाहते हैं. वे दलगत राजनीति से ऊपर उठाकर एक हो गए हैं . इस बार वे कम्युनिस्ट भी शामिल हैं जो विदेशी घुसपैठ तक के मामलें में किन्तु परन्तु करते रहते हैं .वे कहते हैं सूचना का अधिकार उन पर लागू नहीं हो सकता है .वे अपनी पार्टी के सदस्यों के प्रति जबाब देह हैं आम आदमी के प्रति नहीं हैं .वे आम आदमी को जबाब क्यों दें ?
हम पूछते है कि जब देश में प्रजातंत्र है और आप उसमें काम करने वाले राजनिक दल हैं तो प्रजा को जबाब क्यों नहीं देना चाहते हैं ?
प्रजातंत्र में जो दल जनता के प्रति जबाब देह नहीं हैं वो राजनीतिक दल नहीं लुटेरों के गिरोह हैं. और लुटेरों के हित जब तक आपस में ना टकराएँ वे आपस में लड़ते नहीं हैं सिर्फ लड़ने का दिखावा करते हैं. इसलिए आज सारे राजनीतिक दल एक तरफ हैं और जनपक्ष एक तरफ है. सारे राजनीतिक दल एक राय होकर जनता को नहीं बताना चाहते हैं कि वे किसके पैसे से चलते हैं? वे किसके लिए चुनाव लड़ते हैं ? वे किसको किस काबिलियत के कारण अपना उम्मीदवार चुनते हैं ? वे अपनी कथनी और करनी में क्यूँ अंतर रखते हैं ?वे अपने कर्मठ और निष्ठावान कार्यकर्ताओं को छोड़कर तमाम तरह के माफियाओं ,बदमाशों, दल बदलुओं को चुनाव में उम्मीदवार क्यूँ बनाते हैं ? हालाकि सूचना के अधिकार में क्यूँ का सवाल नहीं है लेकिन एक पार्टी कार्यकर्ता और आम नागरिक ये तो पूछ ही सकता है कि पार्टी ने जिस आधार पर निर्णय लिया है वो उसे भी बताया जाए .
राजनीतिक दल यही नहीं करना चाहते हैं .अधिकाँश दल तो किसी न किसी परिवार कि जागीर भर हैं.उन दलों में अन्य लोग तो उनके टहलुआ हैं जिन्हें मुखिया की मेहरबानी से कभी कभी कुछ अहमियत मिल जाती है .लेकिन अफसोस इस बात है कि स्वयं को जनपक्षधर होने का दम भरने वाले भी जनता की भागीदारी नहीं चाहते हैं .क्या उनका यह रवैया ही उनकी दुर्दशा के लिए जिम्मेदार नहीं है ?
खैर कोई बात नहीं .सरकारी कर्मचारियों को भी पता है कि देश में आजादी चाहे सबको मिली हो उन्हें नहीं मिली है. वो सार्वजनिक रूप से न कुछ कह सकते हैं और न ही संसद या विधान सभा में बैठ सकते हैं. किन्तु मुद्दा आज ये नहीं है मुद्दा ये है कि कोर्ट ने कहा है कि राजनीतिक दलों को भी आर टी आई के तहत माँगने पर सूचनाएं देनी चाहियें.बस साहब भूचाल आ गया है.दूसरों के लिए तमाम तरह के क़ानून बनाने वाले क़ानून के खुदा स्वयं को क़ानून के तहत नहीं लाना चाहते हैं. वे दलगत राजनीति से ऊपर उठाकर एक हो गए हैं . इस बार वे कम्युनिस्ट भी शामिल हैं जो विदेशी घुसपैठ तक के मामलें में किन्तु परन्तु करते रहते हैं .वे कहते हैं सूचना का अधिकार उन पर लागू नहीं हो सकता है .वे अपनी पार्टी के सदस्यों के प्रति जबाब देह हैं आम आदमी के प्रति नहीं हैं .वे आम आदमी को जबाब क्यों दें ?
हम पूछते है कि जब देश में प्रजातंत्र है और आप उसमें काम करने वाले राजनिक दल हैं तो प्रजा को जबाब क्यों नहीं देना चाहते हैं ?
प्रजातंत्र में जो दल जनता के प्रति जबाब देह नहीं हैं वो राजनीतिक दल नहीं लुटेरों के गिरोह हैं. और लुटेरों के हित जब तक आपस में ना टकराएँ वे आपस में लड़ते नहीं हैं सिर्फ लड़ने का दिखावा करते हैं. इसलिए आज सारे राजनीतिक दल एक तरफ हैं और जनपक्ष एक तरफ है. सारे राजनीतिक दल एक राय होकर जनता को नहीं बताना चाहते हैं कि वे किसके पैसे से चलते हैं? वे किसके लिए चुनाव लड़ते हैं ? वे किसको किस काबिलियत के कारण अपना उम्मीदवार चुनते हैं ? वे अपनी कथनी और करनी में क्यूँ अंतर रखते हैं ?वे अपने कर्मठ और निष्ठावान कार्यकर्ताओं को छोड़कर तमाम तरह के माफियाओं ,बदमाशों, दल बदलुओं को चुनाव में उम्मीदवार क्यूँ बनाते हैं ? हालाकि सूचना के अधिकार में क्यूँ का सवाल नहीं है लेकिन एक पार्टी कार्यकर्ता और आम नागरिक ये तो पूछ ही सकता है कि पार्टी ने जिस आधार पर निर्णय लिया है वो उसे भी बताया जाए .
राजनीतिक दल यही नहीं करना चाहते हैं .अधिकाँश दल तो किसी न किसी परिवार कि जागीर भर हैं.उन दलों में अन्य लोग तो उनके टहलुआ हैं जिन्हें मुखिया की मेहरबानी से कभी कभी कुछ अहमियत मिल जाती है .लेकिन अफसोस इस बात है कि स्वयं को जनपक्षधर होने का दम भरने वाले भी जनता की भागीदारी नहीं चाहते हैं .क्या उनका यह रवैया ही उनकी दुर्दशा के लिए जिम्मेदार नहीं है ?
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