दूसरे नंबर पर शिरडी के साईं बाबा का मंदिर है। इस मदिंर को साल 2011 में कुल 401 करोड़ रुपए नगद चढ़ावे के रुप में मिले जबकि 36 किलो सोना और 440 किलो चांदी भी चढावे का हिस्सा थी। यह चढ़ावा 2010 के चढ़ावे से 20 प्रतिशत अधिक है। वहीं 2010 में मंदिर को केवल 31 किलो सोना और 320 किलो चांदी मिली थी वहीं नगद चढ़ावे के रुप में मंदिर को 322 करोड़ रुपए मिले थे। विदेशी मुद्रा के रुप में भी मंदिर को 2011 में 6.28 करोड़ रुपए दान के रुप में मिले थे जबकि 2010 में यह 5.43 करोड़ रुपए थी। शिरडी साईं बाबा का मंदिर आय के मामले में भारत का दूसरा सबसे दौलतमंद मंदिर है।
तीसरे नंबर पर माता वैष्णों देवी का मंदिर है जिसकी सालाना आय 500 करोड़ रुपए है .
जबकि सिद्धि विनायक मंदिर को 46 करोड़ रुपए सालाना दान में मिलते हैं। आपको बता दें कि भारत के मंदिरों में लोग खुलकर दान करतें हैं .अभी हाल में ही में पद्माभस्वामी मंदिर के तहखाने से 1 लाख करोड़ से ज्यादा की संपत्ति मिली है।
देश में ऐसे मंदिरों ,गुरुद्वारों, गिरिजाघरों और दरगाहों की बहुत बड़ी संख्या है जहां प्रतिदिन करोड़ों रुपये का चढ़ावा चढ़ाता है.आज मंदिरों की इस संपत्ति का जिक्र करने की आवश्यकता इसलिए पड़ गयी है क्योंकि उत्तराखंड की भयानक त्रासदी के कई दिन बाद भी किसी धर्मस्थल के प्रबंधकों द्वारा पीड़ितों के पुनर्वास के लिए किसी बड़े सहायता कार्यक्रम की शुरुआत नहीं की है. मंदिरों के पास जो अकूत दौलत है वो जनता की संपत्ति है .उसका जनहित में इस्तेमाल करना सबसे ज्यादा धार्मिक और मानवीय कर्म होगा. आखिर ये कोई सरकार की जिम्मेदारी थोडा है कि वो ही जनता की इमदाद का हर काम करे .कुछ जिम्मेदारी समाज के उन हिस्सों की भी है जो जनता के बल पर फल फूल रहें हैं .
पहले भी राज सत्ता आपातकाल में इस धन सम्पदा का साधिकार उपयोग करती रही है लेकिन जब से धर्म निरपेक्ष शासन की अवधारणा ने जन्म लिया है तब से ये धार्मिक संस्थान सरकार को आँख तो दिखाते ही हैं पूरी तरह स्वेच्छाचारी भी हो गए हैं .इनके इसी व्यवहार ने इतिहास में लुटेरों के रूप में ख्याति प्राप्त शासको को इन्हें लूटने के लिये प्रेरित किया होगा। आखिर धन के खजाने में पडे रहने या उसका गैर वाजिब इस्तेमाल करने को कैसे स्वीकर किया जा सकता है जबकि लोग मर रहे हैं?
केदारनाथ धाम का मंदिर बच गया .सारे मीडिया वाले चिल्ला रहें हैं और त्रासदी की भयानक तस्वीरों के बीच मंदिर की तस्वीरें दिखा दिखा कर लोगों की आस्था को मजबूत करने में लगे हैं .आम आदमी को एक क्षण भी यह सोचने का मोका नहीं दे रहें हैं कि बगैर जरूरत केवल दूसरों की देखा देखी वो पहाड़ों पर न जाए. आदमी जहाँ जायेगा वहाँ प्रकृति को नुकसान जरूर पहुंचाएगा .प्रकृति को नुकसान होगा तो वो प्रतिकार जरूर करेगी और तब ऐसे हादसे होंगे ही इनसे बचा नहीं जा सकता है .
इस मंदिर के बचने की महिमा गायन के पीछे एक उद्देश्य छिपा है और वो उद्देश्य है भगवान में आस्था को मजबूत करना . आस्था रहेगी तो लोग पहले से भी बड़ी संख्या में आयेंगे .भक्त गण आयेंगे तो धर्म का कारोबार फले फूलेगा. लोगों का क्या वो तो वैसे भी जीते मरते हैं .असल बात है लोगों की भगवान में आस्था नहीं मारनी चाहिए जिसे कुछ नामुराद लोग अंध विश्वाश भी कहते हैं . वो मर गयी तो लोग यूँ एक मंदिर से दूसरे मंदिर के फेरे लेते रहना छोड़कर कुछ दूसरा बेहतर काम करने लगेंगे .
इस हादसें में बचे मंदिर को लेकर एक बार भी किसी ने उन कारीगरों को याद नहीं किया जिन्होंने अपनी मेहनत और मेधा से इस मंदिर का निर्माण किया था. सही मायने में आज उनकी मेहनत ,उनकी सूझ बूझ और बलिदान को याद करने का अवसर है लेकिन कोई याद नहीं कर रहा है .बिलकुल उसी तरह जैसे ताज महल के निर्माण के लिए शाहजहाँ को तो याद किया जाता है लेकिन उसके कारीगरों को याद नहीं किया जाता है. यह भी नहीं बताया जाता है कि उसे बनाने वालों के हाथ काट दिए गए थे .[ मुझे इस बात के सच होने में संदेह है .अगर ये बात बतायी जाती तो लोग दस्तावेजों की छान बीन करते और सही तथ्य जानकारी में आते .लेकिन ऐसा कहा जाता है तो इसे सच मान लेता हूँ .]
मेहनतों का यही ईनाम है कि वो बेहतर काम करें और अपने हाथ गवां दें. ताउम्र दर्द सहन करना और गुमनाम मरना उनकी नियति है .


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