रविवार, 9 जून 2013

लिखते रहिये

लिखो वही जो सही दिखे और जो भी मन कहना चाहे 
लिखो वही जिस भाव भूमि पर मन अपना रहना चाहे.
लिखो वही जिसको लिखने से जन कल्याण संवरता हो
लिखो वही जिसको लिखने से जग का रूप निखरता हो.


         फेस बुक पर कभी कभी ऐसी टिप्पणियॉं पढने को मिलती है कि फेस बुक पर असफल कवियों का जमघट है। ये देखा जाना चाहिये कि क्या वाकई इस कथन में कुछ सच्चाई है या फिर यह भी एक कुंठाग्रस्त मन की अभिव्यक्ति है? मेरी समझ में फेसबुक स्वयं को मापने का एक अच्छा साधन है। यहां जरूरी नहीं है कि जो आपको पसन्द करता है वो आपका पूर्व परिचित हो या जो आलोचना करता है वो आपसे द्वेष रखता हो, यद्यपि ऐसा भी होता है लेकिन ज्यादातर यह बेलाग अभिव्यक्ति का मंच है। यहॉं वैसी गुटबाजी भी नहीं पायी जाती है जैसी काव्य मंचों या पत्र प़ित्रकाओं में देखने को मिलती है। फिर भी अगर लोग यह कह रहे हैं कि यह असफल कवियों का मंच है तो फिर वह यह बतायें कि सफल कवि के मायने क्या हैं ?
    क्या वे पेशेवर कवि सफल कवि है जो मंचों पर तालीपीट कवि के रूप में जाने जाते हैं और जो मोटा पारिश्रमिक लेकर आलू के बोरों को कविता सुनाते हैं ? या वे सफल कवि हैं जो वीर रस के नाम पर पाकिस्तान को गालियॉं देते रहते हैं या वे जो हास्य के नाम पर चुटकले सुनाते हैं ? क्या भॉंडगीरी का नाम कविता है?
  सब जानते हैं कि वे कवि नहीं हैं । वे कवि भी जानते हैं कि जो वे लिख रहे हैं वो कविता नहीं है। फिर भी इसी को सफलता का पैमाना माना जा रहा है।
   एक प्रकार के दंभी कवि ओर हैं जो प्राय यूनिवर्सिटियों, सरकारी संस्थानों या अखबार के दप्तरों में पाये जाते हैं। इन्हें कविता लिखने छपने की सहज सुविधा प्राप्त है। ये चाहे जो लिखें वो सब कविता है। ये मंच के कवियों को तालीपीट कवि कहते हैं और उसे हिकारत की निगाह से देखते हैं। इनकी निगाह में यह कवि की लोकप्रियता नहीं स्तरहीनता है। इनमें स्वयं को उच्च बोद्धिक मार्क्सवादी कहने वाले वे जनकवि भी हैं जिनकी कविता आम जनता क्या पडे लिखों के भी सिर के उपर से गुजर जाती है। फेसबुक पर इनकी भी अच्छी संख्या है ओर ये किसी अन्य कवि को कवि ही नहीं मानते हैं।
           कुछ कवियों और लेखकों को अपनी छपी किताबों की बडी संख्या से स्वय को बडा लेखक मानने की बीमारी है। जब उन्हें फेसबुक जैसे जनमंचों पर कोई भाव नहीं मिलता है तो वह भी दूसरों को गरियाना अपना अधिकार समझते हैं। दूसरे शहरों की तरह हमारे यहॉं भी ऐसे कवियों की बडी संख्या है जो अक्सर अपनी किताबें छपवाकर उन्हें निशुल्क वितरित करते रहते हैं और आशा करते हैं कि लोग उन्हें बडा लेखक घोषित कर देंगे। लेकिन ऐसी तमाम किताबें रददी में शामिल होने के अलावा किसी काम नहीं आती है। मैं इस तरह मिलने वाली हर किताब को पढता जरूर हूँ  लेकिन एकाध किताब के अलवा बाकि सभी किताबें प्राय ऐसी होती हैं जिन्हें दोबारा देखने को मन नहीं करता है। आखिर इन किताबों के छापने का मकसद क्या है यही ना कि साहित्य प्रेमी तक अपनी पहुच हो या स्वयं की अभिव्यक्ति व्यापक स्तर पर हो ? फेस बुक यह सुविधा बढिया ढंग से उपलब्ध कराता है। आज किताबें हजार पॉंच सौ से ज्यादा की संख्या में नहीं छपती हैं और वे प्राय अपने परिचितों के अलावा और किसी तक नहीं पहुचती हैं। परिचितों से अमूमन वाह वाही के अलावा और कुछ सुनने को नहीं मिलता है। फेस बुक पर जो आप लिखते हैं वह दूर दूर तक जाता है ज्यादा लोगों तक जाता है। उसका लगभग निष्पक्ष मूल्याकंन होता है और त्वरित प्रतिक्रिया भी मिलती है जिसके आईने में आप स्वयं को तोल सकते हैं, सुधार सकते हैं। इसलिये जो यह कहते हैं कि फेसबुक पर असफल कवियों की भरमार है वे गलत कहते हैं । असल में वे स्वयं जोड तोड के कवि हैं और यहॉं आकर पता चल जाता है कि वे स्वयं कितने पानी में हैं। एकाध कवि को छोडकर जो अन्यत्र भी सफल कवि है यहॉं बाकि को मैने ज्यादातर अलोकप्रिय पाया है। फिर भी जिनके अन्दर कहने के लिये कुछ कुलबुलाता है वे फेसबुक पर लिख सकते हैं। यहॉं लिखने के लिये किसी की इजाजत नहीं लेनी है। इसलिये असफलता की बात को हवा में उडा दीजिये और लिखते रहिये जो आपका मन लिखने के लिये करता है।    




1 टिप्पणी:


  1. निहारिका नील कमल अरोरा - हे हे हे हे ये सिर्फ वाह वाही बटोरने का जरिया बहरहाल, मैंने तो अब तक जिस किसी दुर्दांत कवि की आलोचना की है उसने मुझे एन फ्रेंड या ब्लाक ही किया है ,

    प्रियंका सिंह - एक समझदारीपूर्ण स्टेटस......सहमत हूँ...!

    अमरनाथ 'मधुर '- आप दुर्दांत कवियों की आलोचना करें ये भी क्या कम हिम्मत की बात है ? अब इसका सुकृत्य का अंत दुखांत होता है तो होने दो .

    ध्रुव गुप्ता - सहमत हूँ आपसे , मधुर जी !

    सुधीर कुमार सोनी - अमरनाथ जी बहुत ही सुंदर ,बिना कहे खे बहुत कुछ कह दिया आपने धन्यवाद

    एस .यु . सैयद - मधुर जी , सहमत तो हूँ ही , बधाई साथ में , लेकिन सच कड़वा होता है , कुछ को मिर्ची लगे तो मई (आप ) क्या करें ?

    अनूप अवस्थी - मधुर जी आपकी बातों से मैं 100% सहमत हूँ .


    शकील अहमद खान सर मैंने तो इसी फेस बुक पर बेहतरीन कवितायें और अभिव्यक्तियाँ पढ़ी हैं .और उम्दा लेखकों की एक लम्बी लिस्ट भी बन गयी है जिन्हें पढना मन को सुकून देता है जिनके सामाजिक सरोकारों से प्रेरणा मिलती है ..और फिर यह एक तरह से लोकमंच सरीखा है जिसमे वह लोग भी लिख सकते हैं जो पेशेवर नहीं हैं .कुंठित होकर किसी भी भविष्य के माद्ध्यम की आलोचना नहीं करनी चाहिए .मेरा तो ऐसा मानना है.


    शैल त्यागी बेज़ार - ये प्रचार अधिकांशतः उन लोगों द्वारा किया जा रहा है जो कविता /शैरी को अपनी जागीर समझते हैं , वे ये बर्दाश्त नहीं कर पाते की लायिक और कमेन्ट के मामले में उन्हें कई बार अविख्यात लेखकों से पीछे खड़ा होना पड़ता है .

    राम किशोर उपाध्याय आपके विचार से सहमत हूँ ,,,,,,,,,,

    चन्द्र भानु - अति सुन्दर मधुर जी. अफ़सोस इतना बड़ा घोटालो लोगो की आलोचनाओ से बचा रहा
    या कह सकते है की लोगो की नज़र से बचा रहा. फेसबुक सही और इमानदार माध्यम है जहा आप जोड़ तोड़ बहुत कम कर सकते है. फेसबुक का आविस्कर कई लोगो की कलई खोल देगा.

    अमरनाथ मधुर - फेसबुक एक कसोटी है. लेकिन नकली चमक दमक वाले इस पर कसे जाने से कतराते हैं .उन्हें पता है कि उनकी असलियत सामने आ जायेगी .


    चन्द्रभानु - जी बिलकुल ये एक कसौटी है
    20 hours ago · Like · 1

    Ashok Verma पूर्णतया सहमत हूँ।


    डॉ. हीरालाल प्रजापति - बहुत ही अवलोकन के बाद आपने यह बात लिखी है और जो बहुत हद तक सही है.....सबसे अच्छी बात ये है कि यहाँ कवि को न प्रकाशन का खर्च है और न पाठक के पढ़ने की मजबूरी.....यदि आपकी रचना मे दम है तो प्रशंसा मिलेगी वर्ण लोग लाँघ कर चल देंगे ......किन्तु ''कुंठित'' कहना अवश्य ही ज्यादती है......खैर मैं अपनी लिंक यहाँ दे रहा हूँ जब कभी समय मिले तो पढ़कर बताइएगा कि मैं कितना कुंठित हूँ............कितना कवि हूँ ?आपका लेख विचारणीय है ,उपयोगी है ,बधाई ......कृपया मुझे पढ़कर कभी भी जब भी फ्री हों बताइएगा क्योंकि बक़ौल ग़ालिब ''न सताइश की तमन्ना न सिले की पर्वा गर नहीं है मेरे अशआर मे मानी न सही ''............यह भी एक सच है .......................http://www.drhiralalprajapati.com/

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