जाति के विमर्श में कम्युनिष्ट पार्टी के अलंबरदारों का रवैया विस्मित करने वाला है. वो अम्बेडकरवादियों की लाईन पकड़ रहें हैं .उन्हें लगता है उनहोंने जाति की राजनीति न करके अपने शोषित पीड़ित जनों का विश्वास खोया है .वो शोषित पीड़ित जन जो संयोग से भारत में अधिकाँश अनुसूचित जाति में हैं. जाति की राजनीति करके अपना जनाधार बनाया जा सकता है अम्बेडकर वादियों की ये बात उनकी समझ में आ गयी लेकिन उनकी समझ में ये नहीं आया कि यह राजनीति जिस चरम सीमा तक जा सकती थी वहाँ कभी की जा चुकी है और वे हमेशा की तरह थोडा देर से समझे हैं .अब यह राजनीति स्पष्टत जातीय समन्वय की और बढ़ रही है जिसे इसका सकारात्मक रूप बताया जा रहा है .ब्राह्मण सम्मेलन जैसे आयोजन इसी का परिणाम है. यह एक हद तक जातीय समन्वय का रूप है भी लेकिन इसके परिणाम वैसे नहीं हैं जैसे जातिवादी गोलबंदी के हो सकते थे.यह गोलबंदी अपनी सामूहिक ताकत के बल पर समाज के वंचित तबकों के विकास का काम कर सकती थी.लेकिन इसने ये न करके स्वयं को सामंती जातियों के समस्त विकृत रूपों को अपनाने में स्वयं को खप दिया है .
इसका बेहतर रूप क्या हो सकता है? इसे एक बढ़िया उदहारण से स्पष्ट किया जा सकता है. उत्तर भारत में जाट जाति के लोगों ने किसान हितों की हमेशा लड़ाई लड़ी है .यद्यपि उनहोंने कभी जाट नामधारी संगठनों के नाम पर लड़ाई नहीं लड़ी लेकिन सब जानते हैं की जाट लोग जिस मांग को उठाते हैं उसे पूरे संगठित होकर लड़ते हैं .बाकी जाति के किसान लोग भी यह सोचकर उनके साथ जुड़ते हैं कि इनकी लड़ाई से हमें भी फायदा होगा .और वो फायदा होता भी है लेकिन कभी ऐसा नहीं हुआ कि गैर जाट खेती किसानी की कोई आवाज उठाये और जाट उसके समर्थन में एकजुट हो जाएँ . यहाँ तो जाट का मतलब किसान और किसान का मतलब जाट हो गया है. उसी तरह जैसे दलित का मतलब वो जाति जिसका नाम लेना भी गैर कानूनी घोषित कर दिया गया है. अब आप अपनी जाति का नाम लेने पर भी रोक लगाएं और जाति को प्रजातंत्र की जान भी घोषित करें ये समझ में आने वाली बात नहीं है .खैर हमारी समझ में आये या ना आये पर तुम्हारी समझ में तो ये बात आनी चाहिए थी कि जैसे जाटों ने अपनी सनगठित ताकत के बल पर किसानों की बेहतरी के लिए काम किया है आप भी अपनी दलित जातियों के विकास के लिए काम करते. लेकिन आपने क्या काम किया? सिर्फ अपनी मूर्तियाँ बनवाई और कहा हम अपनी मूर्ति बनायेंगे क्योंकि कोई और हमारी मूर्ती नहीं बनाएगा.इसका मतलब है कि मूर्तियाँ और जाति अब जनतंत्र के आधार होंगे .खैर इनकी समझ और इनके फलसफे को हम न कभी मानते हैं और न कभी मानेगे .लेकिन इन कम्युनिष्टों का क्या होगा जो वर्ग विहीन समाज बनाने की बात करते थे? जो सोवियत संघ में अल्प्संखयक जातीय अस्मिताओं के बहुमुखी विकास की बात किया करते थे .क्या जातिवादी गिरोहों से अल्पसंखयक जातियों के किसी तरह के विकास या सम्मान की उम्मीद की जा सकती है ? क्या वोट की जातिवादी राजनीति किसी गोंड ,थारू ,धोबी ,नई .कुम्हार ,वाल्मीकि को राजनीति में ऐसी भागीदारी दे सकती है जैसी बड़ी आबादी वाली जाति के सरदारों ने हासिल कर ली है ? राजनीति में जाति के असर का यही एक परिणाम हुआ है कि कुछ बड़ी आबादी की निम्न और पिछड़ी जाति के सरदारों ने उच्च जातियों के बड़े लोगों के साथ बराबरी की हैसियत बना ली है लेकिन उससे न तो उस जाति की और न ही अन्य पिछड़ी और दलित जातियों की हालात बदली हैं .अब व्यवस्था परिवर्तन और इन्कलाब की बातें करके हमें न उलझायें. जब राजनेता तो क्या शहीद स्वतंत्रता सेनानी, फ़ौजी,साहित्यकार, कलाकार तक जाति के आधार पर चिह्नित करें जा रहें हैं तब इन्कलाब कैसे आ सकता है ? क्या हमने भगत सिंह को जाति के आधार पर माना है ? क्या हमने प्रेमचन्द को जाति के आधार पर पहचाना है ? लेकिन आज तो ये काम जातियों के सरगना कर रहें हैं .और आप कहते हैं कि जातिवादी आयोजनों पर रोक गलत है ,नहीं कामरेड हम आपसे सहमत नहीं हैं .आपके साथ नहीं है .वक्त साबित करेगा सही कोन था और गलत कोन था ?
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राजकुमार सिंह - पूर्ण सहमत !
अरुणेश सी दवे- राजकुमार सिंह याने हमारी बौद्धिक कलाबाजी से असहमत है आप
Prateek Sachan - What about ban on public religious rallies? if one has right to practice his religion privately-publicly then he also has right to do this with his caste(without harming others). This is sheer hypocrisy
संजय कोतियल- हम तो पहले ही खून जलाजलाकर लिखे थे भारतीय सामाजिक और धार्मिक भावनाओं के संवेदनशील जनमानस पर राजशाही के भोग से चलायमान देश पर लोकतंत्र बिना डिसिप्लिन के स्वच्छन्दता ले आया ... पूरा तंत्र ही टांग खीन्चाई में लीन हो गया ... आधार ही अदूरदृष्टि से व्यथित हो तो झोपड़े (महल भूल जाईये !!!) , पानी चूना ही था ... वो भी जानते हुए कि हर दिन बरसात होगी
अनिल - क्या लोकतंत्र कि परिभाषा फिर से लिखना पड़ेगी ...........?
अरुणेश दवे - ये जजेस भी हसन निसार की औलाद है ये अपने कमरे मे बैठ कर तय करना चाहते है कि जनता को कैसा प्रत्याशी चुनना चाहिये, जनता को किस प्रकार की रैली मे जाना चाहिये कुल मिलाकर ये लोग एक बेलेवोलेन्ट डिक्टेकटर चाहते है लोकतंत्र नही
संजय कोतियल - हाँ भारतीय हिसाब से .... ब्रिटेन के हिसाब से कैसे चलेगा ... जुगाड़ है केवल अभी वाला स्वरुप
अरुणेश दवे भारतीय हिसाब से ? ये हिसाब क्या हो ये तय किसको करना है जनता को कि जजो और सिविल सोसाईटी को?
संजय कोतियल - हसन निसार तो एक बुद्धि वाला समझ वाला बन्दा है ... जनता हसन निसार को समझती है ... खुद हसन निसार होने से डरती है जय गुरूजी
अरुणेश दवे - अगर ये जाति आधारित पालिटिक्स नही होती तो आज दलित मैला ढो रहे होते। जाती का मतलब है सामाजिक समूह जो संख्या बल के आधार पर देश के संसाधनो मे अपना हिस्सा पाने के लिये संघर्ष रत रहते है
अनिल सकर्गाये -कोटियाल जी ...........जब जनता समझदार होती है .................तब ही निसार जैसे लोग अपनी बात रख पाते हैं ..............
अनिल सकर्गाये - अन्ना ने भी पहले खुद को प्रूव किया ..... वेट किया .............जब लोहा गरम दिखा तब ही चोट की
Sanjay Kotiyal - Democracy which we practise is directly stolen, idealistic form .... missing or ignoring the social factors ... you didnt see what happened ? Civil codes different and reservation ? Big holes in the original form .... for sure, it must be at operative part diferent ...
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अनिल सकर्गाये - रही बात ......जुद्गेमंत की ...............? आने वाले टाइम में ................सबसे बड़ा प्रोब्लम .............अंकल जग का होने वाला है
Sanjay Kotiyal -Specially the responsibility factor of the beurocrates and leaders ... well defined and controlled mutually
8 hours ago via mobile · Like · 1
अरुणेश दवे - अरे भाई हसन निसार जैसे लोग अपनी बात जनता के सामने रख ओपिनियन बिल्ड कर सकते है। फ़ैसला जनता को लेना है यही डेमोक्रेसी है। डिक्टेटर क्यों फ़ेल होते है ? जबकी एक डिक्टेटर बिना किसी कानूनी अड़चन के डंडे के जोर पर अधिकारियो से काम लेकर शानदार प्रशासन दे सकता है?
अरुणेश दवे - फ़ेल इसलिये होते है कि वे अपनी सोच जनता के उपर लादते है। उपर से लादी गयी सोच हर दम रिजेक्ट हो जाती है। दूसरी बात आप किसी का विकास नही कर सकते उसके लिये प्लेट्फ़ार्म दे सकते है कि वह अपना विकास करे। सौ बच्चे स्कूल जायेंगे तो समान शिक्षा के बावजूद अलग अलग स्तर के क्षात्र निकलेंगे कि नही ? उनकी आव्श्यकताये अपनी होंगी अपना बैक्ग्राउंड होगा और अपना व्य्वक्तिव होगा
आदित्य जैन - यह फैसला चुनाव सुधार का पिछला दरवाजा है .. अब जब netaaon के न्याय की बात आएगी तो न्याय पालिका सुधर योजनाये भी जल्दी आएगी ..
संजय कोतियल - उधर लोकतंत्र फ़ैल और इधर सुरंग में अपना नेटवर्क
संजय कोतियल - सीधी बात है मोटे मोटे तौर पर तीन लोग हैं भारत में - जनता , नेता , और आफिसर्स .... और कोई नहीं .... बाकि दो चीज़े है - समाज और धर्म जिसके चारो और तीनो नाच रहे हैं ... इनको मेनेजकरना है बाकि कुछ नहीं
अनिल सकर्गाये - वाही तो ...............वाही बात ही तो है ..............बब्बा .....इनको शिक्षित करने का ज्ञान कहा से लाओगे .......?
धनञ्जय सिंह - राजकुमार सिंह सर आप सहमत हैं ? जार्ज फर्नांडीज कैसे जेल से लड़े होते,प्रधानपति गाँव में सबसे बड़ा पद है पता ही होगा क्यों ?राबड़ी बैठा कर बाबू लोग मलाई मार लेंगे। हाँ संघर्ष के जरिए एक्का -दुक्का लोगों के भी ऊपर आने की संभावना समाप्त
अनिल सकर्गाये - अब बताओ ................??? देश राम भरोसे चल तो सकता है ..............फिर राम मंदिर नहीं बन सकता .........?
अनिल सकर्गाये - माना की बाब्बर के भरोसे नहीं चल रहा था ...अपना देश ..........इसीलिए बाबरी मज्जिद तोड़ दिए ............राम के भरोसे ............
अनिल सकर्गाये -अब राम और अल्लाह और बाबर सब एक हो गए ............और अडवानी & पार्टी को ..........कोर्ट के भरोसे छोड़ दिए
अमरनाथ मधुर - दवे जी तो दबाये ही जा रहें हैं लगता है कुछ पिछला हिसाब किताब बाकी है .सबसे पहले जनता के हक़ की बात करें तो न्याय पालिका जनता के हक़ में ये बात कह रही है .वो अपने लिए कुछ नहीं कह रही है . दूसरी बात जहां तक दलितों को प्रतिनिधित्व की बात है तो उससे कहाँ इनकार किया गया है ? हाँ सन्दर्भ से अलग हटाकर हम ये जरूर कहते हैं कि दलित का मतलब जाति विशेष से न लिया जाए जो आर्थिक रूप से संपन्न है उसे सामजिक प्रतिष्ठा भी हासिल है वो न अस्प्रश्य है और न दलित. जो आर्थिक और सामजिक पिछड़ेपन से त्रस्त है वह दलित है उसकी पहचान किसी जाति से नहीं होनी चाहिए.लेकिन वर्तमान व्यवस्था में पहचान जाति से ही होगी तो हमारी मांग है पिछड़ी एवं अनुसूचित जाति में शामिल सभी जातियों को कोटे के अन्दर कोटे के प्राविधान के तहत समुचित प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए.अभी तो जातिवादी गिरोहों के सरदार ही मलाई चाट रहें हैं .अल्पसंख्यक जातियों का क्या होगा ?
राजीव चतुर्वेदी - सटीक ...!!
मणि शंकर पंडित - कटु सत्य
अमरनाथ मधुर- न्यायालय ने एक हल्की सी चिकोटी काटी थी लेकिन जाति के सूरमा उसी से बिलबिला उठे . जबकि जरुरत ये है कि न्यायमूर्ति हथोडा जोर से इनके सर पर मार देते जिससे एक ही बार में जाति के प्रेत से मुक्ति मिल जाती. यूँ तिल तिल कर मरने मारने में तकलीप तो होती ही है .
भूपट शूट मित्र- आपकी पोस्ट दोनों ही मुद्दे पर खरे नहीं उतरती लगती. खेर इतना लम्बा और दोनों मुद्दों और न्यायपालिका के निर्णयों में लिखना बता रहा हैं कि आपको इन दोंनों खम्भों पर बहुत विश्वास हैं . उम्मीद करते हैं कि आप जिस धारा की तरफ सोचते जा रहे वंहा सफलता मिलेगी. लाबोलुबाव मैं इस पोस्ट से पुर्णतः असहमत हूँ.
अमरनाथ मधुर - सहमति जरूरी भी नहीं है. लेकिन सहमति नहीं है तो कुछ एतराज होंगें जिनका जिक्र आपने नहीं किया है .आप विशवास की बात करते हैं मुझे न्यायपालिका पर उतना ही विश्वास है जितना कमजोर उसका फैसला है. मैं तो कहता हूँ एक अध्यादेश लाकर जाति को खारिज कर देना चाहिए .जो व्यक्ति जातिसूचक नामों का प्रयोग करता पाया जाए उसे वैसे ही दण्डित करना चाहिए जैसे छुआछूत के लिए दंडित किये जाने का प्राविधान है .
डंडा लखनवी - धर्मवाद और जातिवाद एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं .... सत्ता की दौड़ से धर्मवाद को मुक्त किए बिना जातिवाद पर अंकुश छलावा है|
जय भीम - जय भारत मोहन भगवत के धोती के अंदर
संदीप वर्मा - च च च च ....दलित उभार से इतना परेशान कि तानाशाही को भी समर्थन
डंडा लखनवी - दोहों के आगे दोहे
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सत्ता जब-जब छीनती, जन मौलिक-अधिकार।
तब-तब होती है नई, दलित-पौध..........तैयार॥
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जाति स्वयं की माँ समझ, और धर्म को......बाप?
तू दोनों की नित लात खा, मतकर मगर विलाप??
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जितेन्द्र दीक्षीत - चिकोटी और हथौड़ा से क्या जाति वोट पैटर्न खत्म हो जाएगा? स्कूलों में सुबह प्रार्थना-जिस देश जाति में जन्म लिया, बलिदान....।
राजकुमार सिंह - भाई मेरी सहमती का कारण वर्तमान राजनितिक फिजा से है .अब कौन जार्ज की तरह वाला जेल जा रहा है ? और जातिवाद को नष्ट करना है या जाती बनाये रखना है . जातिवादी तरीकों से जातिवाद से लड़ना है ? गजब की कल्पना है मुझे तो वर्तमान स्थिति में यह निर्णय सही लग रहा है क्योंकि ये काम तो खुद विधायिका का था जो करने में वह अक्षम ही नहीं स्वार्थी भी रही .अब चेक्स और बैलेंसेस से यथास्थिति बदलती है तो स्वागत है ,भले सिस्शंतातः गलत पर आज व्यवहारिक तो है ही !
धीरज यादव - अमरनाथ जी ने काफी गहन चितन करके ये लिखा है .और अमरनाथ जी जाटों ने उत्तर भारत में किसानो की बेहतरी के लिए किया है वो इसलिए है कि मुगलिया सल्तनत के बाद और ब्रिटिश राज के टाइम में जाट ने तरक्की की है . उन्हें सरंक्षण मिला है और उनके नेताओं ने ब्रितिशेर्स से दोस्ती की थी जिसका उन्हें फायदा मिला .
सचिन जमंद - धीरज भाई .... तुम ख रहे हो की जाट नेताओं ने अंग्रेजो से दोस्ती कर ली ... क्या तुम्हें नहीं पता कि जाटों के 2 ही नेता थे शहीद - ए -आजम ' सरदार भगत सिंह और चौधरी चरण सिंह जी ... और इन दोनों ने ही किसी अंग्रेज से दोस्ती नहीं की और न ही जाट के लिए कोई चीज़ माँगी ....कुछ सोच समझकर लिखा करो यादव जी ...नहीं तो हिस्ट्री की बुक ले आओ ..उसमें इतिहास देखकर बोल दिया करो ...
अमरनाथ मधुर - जाट नेताओं ने स्वयं को संगठित जरूर जातीय आधार पर किया लेकिन केवल अपनी जाति के लिए ही संघर्ष नहीं किया उन्होंने जो कुछ हासिल किया वो सारे किसानों के हित में किया .एक दो नेताओं को छोड़कर उन्हें जातीय नेता के रूप में जाना और माना भी नहीं जाता है .आजादी की लड़ाई में उनके बलिदानों का देश ऋणी है लेकिन वे स्वतंत्रता सेनानी अपनी जातीय सोच के लिए नहीं जाने जाते हैं .दुःख ये है कि उनकी कुर्बानियों को जाति के झंडों पर टांगा जा रहा है .
आईफा नौजवान सभा अनूपपुर- जब अन्याय के खिलाफ निम्न जातियां लामबंद होने लगी तो रोक लगाने लगे .
आदित्य जैन - राजनीति में जाति के असर का यही एक परिणाम हुआ है कि कुछ बड़ी आबादी की निम्न और पिछड़ी जाति के सरदारों ने उच्च जातियों के बड़े लोगों के साथ बराबरी की हैसियत बना ली है लेकिन उससे न तो उस जाति की और न ही अन्य पिछड़ी और दलित जातियों की हालात बदली हैं...
कांशी राम, मायावती, राम विलास पासवान ऐसे ही कुछ उदाहरण है... जिन्हें मौका मिला और जो एक और अम्बेडकर बन कर इन जातिओ का भला कर सकते थे.. पर.. जो कुछ हुआ वो आपको और हमें सबको पता है..

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