कुछ अजीब फितरत हमारी है,या दिमागी खुराफात भारी है,
कल प्यार से गले लगाता था जो,तोड़ बैठा वही आज यारी है .
मैं जलेस मेरठ के नाम से ब्लॉग लिखता था. फिर फेस बुक पर लिखना शुरू किया .यहाँ के अनुभव निराले रहे.यहाँ कई ग्रुप हैं .कोई अम्बेडकरवाद का झंडा उठाये है कोई जनवाद का .कोई संघ के प्रचार में जुटा है कोई जमात के. कोई किसी को फूटी आँख देखने को तैयार नहीं है. अपनी जिज्ञासु वृत्ति को कायम रखते हुए मैं बारी बारी से सब जगह घूम आया हूँ लेकिन कहीं बात जमीं नहीं .जैसे ही कहीं सवाल उठाओ तुरंत गालियों की गोलीबारी शुरू हो जाती है. संघियों से तो जबरदस्त मुठभेड़ जारी है. तमाम गाली गलौच के बाद भी न मैंने हार मानी न उन्होंने. लेकिन सबसे ज्यादा खराब मुठभेड़ जातिवादी गिरोहों से रही है .ये तुरंत मनुवादी,ब्राह्मणवादी,का पत्थर दे मारते हैं .ये समझ में नहीं आता इन्हें परेशानी क्या है ? अगर हम अनुसूचित जाति ,पिछड़ी जाति की बात करें तो ये कहेंगे सब दिखावा है .इनके हिसाब से केवल अनुसूचित जाति का व्यक्ति ही अनुसूचित जाति के हित की बात कर सकता है .वो भी तभी प्रमाणिक मानी जा सकती है जब वो दस बीस गाली ब्राह्मणों और सवर्णों को दे .अब ये काम करना मुझे जरूरी नहीं लगता है सो उन्हें खारिज करते देर नहीं लगती है .
वामपंथी जनवादियों का हाल और भी बुरा है.पहले तो उन्हें संवाद करते हुए बड़ी तकलीफ होती है .क्यूँकी बुद्धिजीवी होने का दंभ उन्हें हरेक से बात करने से रोकता है.फिर उनके पास वामपंथी मार्क्सवादी होने की ऐसी कसौटी होती है जो उनके हिसाब से सिर्फ उन्हीं के पास है और जिस पर उनके अलावा कोई दूसरा खरा नहीं उतर सकता है. अब जब सबमें खोट है तो वो क्यूँ वक्त जाया करें ? इसलिए वो अपने बौद्धिक जगत में मगन रहते हैं हाँ कभी कभी उनका मन हो तो वो नसीहतें जरूर दे देते हैं बाकी ज्यादा वार्ता करना वो वक्त जाया करना मानते हैं .
ऐसे सारे लोग मुझे धकिया चुके हैं.मैंने सोचा एकाध ऐसी चौपाल पर कुछ देर बैठेंगे जहाँ कोई मताग्रह नहीं होगा. अपने मिजाज के अनुरूप मैंने एक दो साहित्यिक समूह में प्रवेश किया. अब या तो अपनी तासीर ही कुछ ऐसी है कि कहीं निभाव नहीं होता या वो भद्र लोग मेरे उजड्डपन से आजिज आ जाते हैं. मैं लिखता हूँ सीधे सीधे वो साहित्य के नाम पर ऐसी जलेबियाँ उतारते रहते हैं जिसका रस लें पर कोई सिर हाथ न आये. अब ये मीठी मीठी गोल गोल बातें किन उंचाईयों गहराईयों में ले जाकर पटक दें कुछ समझ में नहीं आता है .इनका जिंदगी की दुश्वारियों से कुछ लेना देना भी है या नहीं है ये भी समझ में नहीं आता है . आप आम जिंदगी से जुड़े थोड़े सवाल अपनी भाषा में उठाकर देखिये उन्हें तुरंत बदहजमी हो जाती है . मैंने ऐसे सवाल उठाये तो मुझसे इतने परेशान हुए की उन्होंने तुरंत फ़िल्टर करना शरू कर दिया. अब ऐसी पाबंदियां अगर यहाँ भी आयद होंगी तो फिर आप में और सरकार नियंत्रित मीडिया में फर्क क्या रहा ?
शुक्र है कि फेस बुक है वरना भावाभिव्यक्ति की कोई जगह नहीं थी. जय जुकेरबग.
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