डस रहें जो देश सारा, नाग जहरीले बड़े हैं,
ये समंदर के तटों से शहर की जानिब बढे हैं .
अब हवा फुंकार की दहशत दिलों में भर रही है
दूध का भर पात्र देवी देहली पर धर रही है .
कुछ डरे सहमे हुए स्वर फिर कृष्ण को टेरते हैं
कुछ कर्ण बनकर हिकारत से नजर को फेरते हैं .
क्या करेगा नाग कोई,गर डसेगा, तो मरेगा
युद्ध जो सम्मुख छिड़ा है कर्ण बस उसको लडेगा.
कर्ण का सन्देश है ये, है नहीं उपदेश गीता
'ओ मनुज छल से नहीं मैंने कोई भी युद्ध जीता .
ना कभी डरकर किसी को शीश अपना है नवाया
ना कोई सुर या असुर मेरे जरा भी काम आया.
ना कभी जय या पराजय की कोई चिंता रही है
मैं जिधर को डोलता काँपी उधर की ही मही है
जब कर्म योद्धा कोई निश्चय दिलों में ठानते हैं
नाग थर्राते धरा के, देव सारे मानते हैं .
इसलिए मत डरो नाग चाहे जिस जाति का हो
जहरीले नागों की खातिर तुम खुद संपाती हो
जो भी सम्मुख नाग तुम्हारे गलती से आएगा
मारा जाएगा या खुद ही बिल में घुस जाएगा.
घने वनों या कंदराओं या ताल, समंदर में ही
नाग सुरक्षित रह सकता है,घर या नगर नहीं.
हाँ पी जाए दूध एक दिन कोई बात नहीं है
लेकिन रोज रोज का सहना अब संघात नहीं है.
डसने की तो बात दूर जो थोडा फुत्कारेगा
बच्चा बच्चा खोद बिलों को नाग खोज मारेगा
अभी परीक्षित सुत जनमेजय जग निशेष नहीं है
और कालदह भी यमुना में कोई शेष नहीं है .
तक्षक और वासुकि भी बस गाथाओं में बसते
बड़े बड़े नागों को अब हम दांत तोड़कर रखते
बेहतर है जो नाग समंदर से घुस रहे नगर में
वे जंगल में रहें लौट या जायें अपने घर में .
वरना आज दूध पीते कल मारें भी जायेंगे
क्यूँकि अपनी डसने की आदत न छोड़ पायेंगे
केंचुल धारण करने से ना नाग संत होता है
जो रखते हैं जहर उन्हीं का बुरा अंत होता है .
---------अमरनाथ 'मधुर'
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