गुरुवार, 12 सितंबर 2013

दंगों में पलायन



रूपया गिर रहा है ये समझ में बात आती है
मगर इंसानियत इतनी गिरेगी ना समझ आता.
ये रिश्ते आज के तो है नहीं बरसों पुराने हैं
बुरा है वक्त तो फिर क्यूँ पडौसी काम ना आता?


चले जो लोग जाते हैं छोड़कर गाँव पुरखों का
उन्हें रोको, तसल्ली दो नहीं वाजिब है यूँ जाना.
बता दो गर तुम्हें टेढ़ी नजर से देख ले कोई
हमारा गाँव में जीने से फिर अच्छा है मर जाना.


कुछ लोग मेरे शहर को तंदूर बना कर
अपनी सियासी रोटियों को सेंक रहें हैं.
ये बात उन्हें न पता, हमको तो पता है
कैसा भी बुरा वक्त हो हम एक रहें हैं.
                                          --------अमरनाथ 'मधुर' 

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