रविवार, 15 सितंबर 2013

देशवासियों की मानसिकता

   
बाब दें अपराधी  के सामने फांसी का झूलता हुआ फंदा बड़ा दंड है या उसका फांसी पर लटकाए जाना ?
      अगर कोई विदेशी हमारे देशवासियों की मानसिकता का अध्ययन करे  तो वो हैरत में पड़ जाएगा . यहाँ के लोग हमेशा उन्मादग्रस्त रहते हैं. यह उन्माद हमारे जन जीवन में गहराई से असर डाल रहा है.इसका न्याय से ,प्रगति से, लोकतंत्र से कुछ लेना देना नहीं है.  अब देखो ना लोगों का एक बड़ा हजूम फाँसी फाँसी चिल्लाता है और न्यायालय फटाफट फाँसी के फैसले सुना देता है. उधर लोग पागलों की तरह मोदी मोदी चिल्ला रहें हैं उन्हें ना स्वतंत्रता सेनानी सईद एहसान जाफरी का जलता जिस्म याद है, न इशरत जहाँ का गोलियों से जख्मी शव . यद्यपि ये भी सच है कि ये आम भारतीय नहीं हैं. भाड़े के लोग हैं. ऐसे ही भाड़े के लोगों ने मुजफ्फरनगर के हालात बिगाड़े हैं .लेकिन सवाल फिर यही है कि भीड़ क्यूँ उन्माद  ग्रस्त हो जाती है. यह भीड़ इंसानियत,जनतंत्र और न्याय को बचाने के लिए भी तो जुट सकती है. हत्या चाहे वो कानूनी हो या गैर कानूनी उस की माँग के लिए जुटना या हत्यारों के महिमामंडन के लिए जुटना किसी आधुनिक, प्रगतिशील, उदारवादी और न्याय प्रिय समाज की पहचान नहीं है. हमें आधुनिक, प्रगतिशील,उदारवादी और न्याय प्रिय समाज बनाना है, कबीलाई समाज नहीं . आओ ऐसा समाज बनायें, जहाँ किसी के प्राणों का हनन न हो, जहाँ सब बेख़ौफ़  रहें, जहाँ सब मिल जुलकर आगे बढ़ें, जहाँ फैसलें  भावना से नहीं, विवेक से हों .


    जिस समाज में बलात्कार की मानसिकता विकसित होती है, कुछ उसकी भी जबाबदेही है कि नहीं है ? बलात्कारियों या आतंकवादियों या और किसी को भी फांसी हो जाए ये एक बात है लेकिन उस पर ख़ुशी जाहिर करना दूसरी बात है. मैं किसी दोषी को आजाद किये जाने के पक्ष में नहीं हूँ लेकिन किसी भी तरह की हत्या पर खुश नहीं हो सकता हूँ और न ही इसे समुचित सजा मानता हूँ. फाँसी क्रूर अपराधी के लिए एक बड़ा इनाम है असली सजा जिंदगी को जेल की सलाखों में घिसट घिसट कर पूरा करना है


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