शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

यही प्रजातंत्र है ?


 यही प्रजातंत्र है कि प्रजा का बहुमत सत्ता के विरुद्ध है लेकिन मतदान  से दूर है . जो मतदाता मतदान नहीं करते हैं उनके सम्बन्ध में ये माना जाना चाहिए कि उन्हें इस व्यवस्था में विश्वाश नहीं है. अगर ऐसे मतदाता चालीस प्रतिशत  भी हैं और  और विजयी प्रत्याशी मतदान का पचास प्रतिशत  मत भी हासिल करते हैं तो इसका ये अर्थ हुआ कि वे कुल मतदाताओं का केवल तीस प्रतिशत  मत ही पाते हैं इस प्रकार सत्तर प्रतिशत मतदाता उनके विरोध में हैं .अब विजयी प्रत्याशियों  में से अगर आधे से अधिक भी सत्ता  के साथ हों तो पंद्रह प्रतिशत मतदाताओं के प्रतिनिधि होंगे जबकि पिचासी फी सदी उनके विरोध में हैं . पिचासी फी सदी पर पंद्रह फी सदी के फैसले का लागू होना जनता द्वारा जनता का जनता के लिए शासन नहीं कहा जा सकता है .लेकिन अगर वर्तमान व्यवस्था को देखें तो यही पायेंगे .उस पर गरूर  ये है कि हमें  जनता ने चुनकर भेजा  है हम जो चाहेंगे वो करेंगे. अरे नालायकों जनता तो तुम्हें पहले ही खारिज कर चुकी है. ये तो उसकी सहन शीलता है जो वो तुम्हें पांच साल तक झेलती है. अगर जनता के पास तुम्हें वापिस बुलाने का हक़ होता तो वो तुम्हें कभी का घर भेज चुकी होती. इसलिए इंतज़ार करना उसकी मजबूरी है. वैसे कहा ये भी गया है कि जिन्दा कौमें पांच साल इंतज़ार नहीं करती हैं . लेकिन जब अवसर आता है तो जिन्दा कौमें धर्म और जाति के नशें में भी नहीं बहकती हैं .वे पूरे होशो हवाश में फैसलें करती हैं .इसलिए अगर आप जिन्दा हो तो अपने जिन्दा होने को साबित भी करो .जाति और सम्प्रदाय के भेडियों को अपनी बस्ती से बाहर निकाल दो .
हाँ ये विचारणीय है .लेकिन अगर अध्यक्षात्मक प्रणाली में भी विजयी प्रत्याशी  को कुल मतदाताओं के   पचास प्रतिशत से कम मत प्राप्त होते हैं तो उस मतदान को रद्द कर पुनर्मतदान कराया जाना चाहिए .मतदान को अनिवार्य बनाया जाना चाहिए तथा मतदाता को प्रत्याशियों को अस्वीकार करने का भी अधिकार होना चाहिए. अगर किसी चुनाव क्षेत्र में प्रत्याशियों को अस्वीकार करने वालों का बहुमत है तो वहाँ पुनर्मतदान कराया जाए.
   कुल मिलाकर मेरा यह कहना है कि विजयी प्रत्याशी को कुल मतादाताओं के बहुमत का समथन प्राप्त होना आवश्यक है तभी वे सही मायने में जन प्रतिनिधि कहलाने के अधिकारी हो सकते हैं .


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