रविवार, 22 सितंबर 2013

'गुमनामी में ही मरते हैं ऐसे कई नायक'-------पंकज चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार

[कहा जाता है कि हमारे देश का भारत नाम महाराज दुष्यंत के पुत्र भरत के नाम पर पड़ा है. राजा भरत के बारे में मशहूर है कि वे बचपन में शेरों के बच्चों के साथ खेला करते थे. पता नहीं सच है या राजाओं को महान बताने के लिए गढ़े  गए सैकड़ों अन्य झूठे सच्चे किस्सों की तरह का यह भी एक किस्सा है. लेकिन हमारे वक्त में चेंदू नाम का मुरिया आदिवासी हाल ही में गुमनामी के अन्धेरें में भूख और बीमारी से मर गया .वह चंदू जो
अपनी युवावस्था में शेर के बच्चे के साथ खेलता था तथा जिस पर  सन 1957-58 में मशहूर स्वीडिश फिल्मकार अर्न सक्सिडॉर्फ ने एक फिल्म की शूटिंग अबूझमाड़ के जंगलों में की, जिसमें शेर को उसके साथ-साथ खेलते-कूदते दिखाया गया था। उस फिल्म एन डीजंगलसागा के नायक चेंद्रू मंडावी ही थे। उस फिल्म को 1958 के कान सहित कई अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में न केवल ख्याति मिली, बल्कि कई सम्मान भी मिले। आज जब बिजूकों को सदी का महानायक बताया जाता है तो वास्तविक नायकों का यूँ गुमनामी में जीना और मरना अस्वाभाविक नहीं है. लेकिन क्या यह हमारे लिए शर्मनाक नहीं है. पढिये विख्यात पत्रकार पंकज चतुर्वेदी का दैनिक हिंद्स्तान में दिनाँक 21-09-13 को प्रकाशित आलेख ]
                                             
             चेंद्रू भी मर गए। लकवे के कारण उनका पूरा शरीर जड़ हो गया था, उमर भी कोई 76 साल हो गई थी। हकीकत तो यह है कि चेंद्रू को खुद भी नहीं पता था कि वह क्या थे? उनके पास कई यादें थीं 50-60 साल पहले की। जब देश-विदेश से कई लोग केवल उन्हें देखने और फोटो खींचने आते थे, वह अचंभित रहते कि आखिर उनमें ऐसा क्या है? आज उनकी मौत पर समाज भी यही पूछ रहा है कि उस मुरिया आदिवासी में आखिर ऐसा था क्या कि उसे याद किया जाए?
                         
उस समय बस्तर में न सड़क थी और न बिजली। यहां के घने जंगल कई-कई दिनों तक सूर्य की रोशनी नहीं देख पाते थे। अबूझमाड़ की शुरुआत में ही एक गांव है गढ़बंगाल। इसी गांव के मुरिया आदिवासी बच्चे चेंद्रू को जंगल में शेर का एक घायल बच्च मिल गया। वह उसे घर ले आया। शेर उसके घर में ही पालतू मवेशी की तरह रहने लगा। वह चेंद्रू के साथ सोता, खेलता, शिकार करने जाता। यह बात ईसाई मिशनरियों के जरिये धीरे-धीरे बाहरी दुनिया को पता चली। सन 1957-58 में मशहूर स्वीडिश फिल्मकार अर्न सक्सिडॉर्फ ने चेंद्रू को लेकर एक फिल्म की शूटिंग अबूझमाड़ के जंगलों में की, जिसमें शेर को उसके साथ-साथ खेलते-कूदते दिखाया गया था। उस फिल्म एन डीजंगलसागा के नायक चेंद्रू मंडावी ही थे। उस फिल्म को 1958 के कान सहित कई अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में न केवल ख्याति मिली, बल्कि कई सम्मान भी मिले। उनके दुर्लभ चित्रों पर स्वीडिश भाषा में एक पुस्तक भी आई थी, जिसे चेंद्रू अपने अंतिम क्षणों छाती से लगाए रहे।
     
बाद में चेंद्रू के बचपन के दिन हवा हो गए थे, पालतू शेर इतना बड़ा हो गया कि उसे समाज के बीच रहने में दिक्कत होने लगी और अंतत: उसे जंगल में छोड़ना पड़ा। उसके बाद चेंद्रू के लिए गुमनामी के दिन शुरू हो गए। कभी वह खेती करते, तो कभी झड़-फूंककर अपना पेट पालते। बीच-बीच में उनके परिवार वाले जिला प्रशासन से रोजगार मांगते, मगर बदले में सिर्फ आश्वासन मिले। उनके एक बेटे को बमुश्किल संविदा की नौकरी मिली, जो अब भी स्थायी नहीं हो पाई। चेंद्रू का परिवार बढ़ा, जमीन कई हिस्सों में बंटती गई और फिर उनके लिए दाने-दाने के लाले पड़ गए। बीते साल जब चेंद्रू बीमार पड़े, तो फेसबुक पर यह खबर पाकर जापान में रहने वाली फेंको इमान्युली ने उनके इलाज के लिए जिला प्रशासन को सवा लाख रुपये भिजवाए थे।
एक निश्चल आदिवासी, जिसने बस्तर को अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाई, कई फिल्मकारों व पत्रकारों को बेहतरीन कहानियां उपलब्ध कराईं, उसकी पूरी जिंदगी खुद को ही पहचानने में बीत गई। उनके अंतिम संस्कार में प्रशासन की ओर से कोई नहीं था। चेंद्रू की मौत जिला स्तर पर चार कॉलम की खबर थी, रायपुर आते-आते वह छोटी-सी सूचना बन गई और दिल्ली तक तो वह पहुंची ही नहीं। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
                                                                     -------पंकज चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार

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