सोमवार, 9 सितंबर 2013

मुट्ठी में बंद 'इन्कलाब'


बचपन में सारे घर की दीवारों पर लिखा करता था
बड़ा हुआ तो मुझे फेस बुक की लिखने को वाल मिली.

और किसी की दीवारों पर लिखा गली में शौर हुआ
आज वाल पर लिखता हूँ तो चर्चा होती गली गली .

मेरी इस आदत पर पहले कान उमेठा करती माँ
अब लोगों की मुस्कानें,धमकियाँ और गालियाँ मिली .

बचपन का लिखा दीवारें पुत जाने पर मिट जाता था
आज नेट पर नक्श किया बस हवा उसे ले उड़ा चली .

कहने वाले मुझको कायर लिख लिख कर गरियातें हैं
धर्म, जात के चौराहें पर मेरी खुलती नहीं गली.

'इन्कलाब' भी जिन लोगों की मुट्ठी में बंद रहता है
मेरी आवाजें उनकी आवाजों से भी नहीं मिली .

सबसे अलग अनोखे होने का न मेरा दावा है
पर  जाता उस राह नहीं जिस ओर आँख बंद भीड़ चली . 

0 टिप्पणियाँ:

एक टिप्पणी भेजें