कहा जाता है कि विद्रोह अगर सफल हो जाए तो वह क्रान्ति कहाता है और अगर क्रान्ति विफल हो जाए तो विद्रोह है. याद कीजिये ब्रिटिश सरकार ने भगतसिंह को विद्रोही और आतंकवादी ही कहा था तथा उनका जीवित रहना शासन के लिए खतरा करार दिया था. तो क्या भगत सिंह आतंकवादी थे ? वक्त ने इसका जबाब दे दिया है .भगत सिंह आतंकवादी नहीं थे,क्रांतिकारी थे और तत्कालीन सरकार आतंकवादी थी, हत्यारी थी लेकिन कभी किसी सरकार ने स्वयं को ऐसा नहीं माना है .
विश्वविख्यात क्रांतिकारियों में चे ग्वेरा का नाम सबसे ऊपर है. चे ने अपना सारा जीवन विश्व में जनवादी क्रान्ति के लिए समर्पित कर दिया था .क्यूबा में क्रान्ति के बाद के बाद वे दक्षिणी अमेरिकी देशों में क्रान्ति करने के लिए पहुँच गए थे और उसी प्रयास में मारे भी गए. अपनी शहादत से वे सारे संसार में कम्युनिष्टों के हीरों हो गए लेकिन राज सत्ता की निगाह में तो वे बागी और घुसपैठिये ही थे बिल्कुल उसी तरह जिस तरह आमिर कसाब था .लोग आमिर कसाब को चे के बराबर बैठाने से भड़क जायेंगे लेकिन दोनों में अंतर क्या है ? यही ना कि एक जनता के शासन के लिए निरंकुश सत्ताओं से लड़ रहा था और दूसरा इस्लामी कट्टरता से ओत प्रोत होकर इस्लामी शासन स्थापित करने के लिए. लेकिन ये तो अपने अपने चुनाव और लगाव की बात है .कसाब और उसके आकाओं की नजर में तो जनता को सच्ची आजादी और न्याय इस्लामी शासन में ही मिल सकता है. उसी तरह जिस तरह चे ग्वेरा और उसके अनुयायियों की नजर में जनवादी क्रान्ति ही जनता को अन्याय और शोषण से मुक्ति दिल सकती है. कौन सही है और कौन गलत है इस पर एक राय नहीं हो सकती है. दुनिया में कहीं भी व्यवस्था का वह रूप देखने में नहीं आया है जो वास्तविक लोकतंत्र और समता देता हो .जहाँ तक व्यवस्था परिवर्तन के तरीके का प्रश्न है तो ये कहा जा सकता है कि आतंकवादी निरीह जनता, बूढ़े बच्चों और स्त्रियों का खून बहाते हैं जबकि क्रांतिकारी अत्याचारियों को ही निशाना बनाते हैं .लेकिन ये बात तथ्यात्मक और व्यावहारिक रूप से सही नहीं है . जब क्रांतिकारी कोई एक्शन लेते हैं तो उसकी चपेट में बेक़सूर लोग भी आ ही जाते हैं और यूँ ही बेक़सूर लोगों को मारने का शौक किसी को नहीं होता है ,आतंकवादियों को भी नहीं हो सकता है . हाँ घिर जाने पर स्वयं के बचाव के लिए कुछ भी किया जा सकता है, जो सब करते हैं . लेकिन अन्तत: अंतिम लक्ष्य तो स्थापित सत्ता को उखाड़ कर अपनी सत्ता को स्थापित करने का ही होता है जो सब जनता की सत्ता के नाम पर किया जाता है .अगर उसमें सफल हो गए तो क्रांतिकारी कहलाते हैं और उनकी मूर्तियाँ चौराहों पर लगाई जाती हैं और अगर विफल हो गए तो आतंकवादी कहलाते हैं और उनके दफनाने के लिए कब्रिस्तान में जगह तक नहीं मिलती है .
कुछ लोग अदालतों के न्याय का हवाला देंगे.लोगों को एक ख़ूबसूरत भ्रम है कि अदालतें न्याय करती हैं .जबकि हकीकत ये है कि अदालतें न्याय नहीं करती हैं अदालतें फैसलें सुनाती हैं. अदालती फैसले शासन के नियम कानूनों के अधीन होते हैं .अगर अदालतें न्याय करती तो महात्मा गाँधी को जेल और भगत सिंह को फाँसी ना होती. लेकिन क्यूँकि उस वक्त के क़ानून के हिसाब से उन्हें यही सजा हो सकती थी तो अदालतों ने वह सजा दी. अब यह जनता के ऊपर है कि वह अदालत के इस फैसले को स्वीकारती है या धिक्कारती है? अदालतों ने भले ही स्वयं में न्याय किया हो लेकिन जनता जनार्दन ने दिखा दिया कि यह अन्याय है और जनता उन्हें अपने दिल में जगह देकर पूजती है. लेकिन क्या ब्रिटिश सरकार या जनता आज भी उन्हें निर्दोष मानेगी ? नहीं मानेगी. वैसे ही नहीं मानेगी जैसे पाकिस्तान की जनता और हकूमत शेख मुजीब को नहीं मान सकती है .शेख मुजीब पाकिस्तान की अखंडता के दुश्मन हैं.अब यह कौन कहेगा कि पाकिस्तान के खंड खंड होने की कुछ जिम्मेदारी बल्कि ज्यादा जिम्मेदारी पाकिस्तानी हुकुमरानों की ही है. क्या यही सवाल कश्मीर के मामलें में भी मोजूं नहीं है ? पर कश्मीर का नाम आते ही आप तुरंत भावनाओं में बह जाते हैं. आखिर कश्मीर के सवाल को वास्तविकता में क्यूँ नहीं देखते हैं ? आप का ब्लड प्रेशर हाई क्यूँ हो जाता है ? राष्ट्रवादी होना अच्छी बात है लेकिन इससे सवाल उठने बंद नहीं हो जायेंगे. सवाल तो उठेंगे ही और आप को जबाब भी देने होंगे. अगर आप जबाब नहीं दोगे तो वक्त जबाब देगा .
ये स्वतंत्र चिंतन है कोई फतवेबाजी नहीं है .आप अपनी पृथक राय रखने के लिए स्वतंत्र हैं .
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1-सिद्धार्थ वर्मा- यदि अपनी मान्यता को एकमेव सत्य न माने तो व्यक्ति उस पर आस्था या विश्वास कैसे करेगा? मुश्किल तब होती है जब व्यक्ति दुसरे की मान्यता को गलत कहे या फिर दुसरे पर उसको थोपने का यत्न करे। बात तब है कि यदि किसी का विश्वास सत्य की कसौटी पर गलत साबित हो तो वह उसे विनम्रता से स्वीकार करे।
2- फरीद अहमद - बहुत अच्छा लेख है सर बहुत सुन्दर जैसे किसी चित्रकार ने रंगों को ख़ूबसूरती से कैनवास पर बिखेर दिया हो.
1-सिद्धार्थ वर्मा- यदि अपनी मान्यता को एकमेव सत्य न माने तो व्यक्ति उस पर आस्था या विश्वास कैसे करेगा? मुश्किल तब होती है जब व्यक्ति दुसरे की मान्यता को गलत कहे या फिर दुसरे पर उसको थोपने का यत्न करे। बात तब है कि यदि किसी का विश्वास सत्य की कसौटी पर गलत साबित हो तो वह उसे विनम्रता से स्वीकार करे।
जवाब देंहटाएं2- फरीद अहमद - बहुत अच्छा लेख है सर बहुत सुन्दर जैसे किसी चित्रकार ने रंगों को ख़ूबसूरती से कैनवास पर बिखेर दिया हो.