रविवार, 20 अक्तूबर 2013

बख्शी हैं हमको इश्क ने वो जुर्रतें मजाज़


 "बख्शी हैं हमको इश्क ने वो जुर्रतें मजाज़,
  डरते नहीं हैं सियासते अहले जहां से हम ."
                                           ---------[डाक टिकट पर उर्दू में लिखे शेर का हिन्दी रूपांतरण ]
मजाज़ लखनवी हकीकत में उस असरार (रहस्य) का नाम है जिसे ज़माना उसकी मौत के बाद भी समझने की कोशिश में मुब्तला है. उर्दू के तमाम शायरों में अगर सबसे शायराना ज़िन्दगी किसी की रही तो ये मजाज़ ही थे. उर्दू अदब की दुनिया में ये किस्से पहले ही अमर हो चुके हैं कि एक जमाने में कुंवारी लडकियां अपने मुस्तकबिल के बेटों के नाम मजाज़ के नाम पर रखने की कसमें खातीं थीं. मजाज़ के लिए लड़कियों में लॉटरी निकाली जाती थीं और उनकी नज्में गर्ल्स होस्टल के तकियों में दबीं मिलती थीं. लेकिन मजाज़ ताजिंदगी जिन्से उल्फत (प्यार) के तलबगार ही रहे. और इसी तलब का पूरा न होना मजाज़ की बर्बादी का सबब बना. एक दफा अलीगढ़ विश्वविद्यालय में ही इस्मत चुगताई ने उनसे कहा कि लडकियां मजाज़ से मुहब्बत करती हैं.. इस पर मजाज़ ने तपाक से कहा और शादी पैसे वालों से कर लेती हैं.
        जिंदगी में सब कुछ बदलता रहा लेकिन हाजिरजवाबी का ये असासा हर दौर में मजाज के साथ रहा. जब इस्मत चुगताई ने उनसे पूछा कि मजाज़ तुम्हारी ज़िन्दगी को बर्बाद लड़की ने किया या शराब ने तो मजाज़ ने कहा कि मैंने दोनों को बराबर का हक दिया है. मजाज़ के ऐसे कई लतीफे जिन्हे बाद में मजाज़ीफे कहा जाने लगा, आज भी लखनऊ की आबो-हवा में बिखरे पड़े हैं. एक दफा मजाज़ को आगरा की मशहूर फनकार जानकीबाई से मिलवाया गया तो शर्मीले स्वभाव वाले मजाज़ ने कहा कि क्यूँ मिलवा रहे हो भाई, बाई कहीं की भी हो बहुत कष्ट देती है और फिर ये तो जान की बाई हैं. इसी तरह जब उन्हें मशहूर शायर अब्दुल हमीद “अदम” से मिलवाया गया तो मजाज़ ने यहाँ भी कहा- अगर ये अदम (अनास्तित्व) हैं तो वजूद क्या होगा ? फिराक साहब की पोती ने एक दफा उन्हें हरामजादा कह दिया तो फ़िराक साहब ने मजाज़ से कहा कि देखिये ये छोटी सी बच्ची मुझे हरामजादा कह रही है इसपर मजाज़ ने कहा- मर्दुमशनास (आदमी को पहचानने वाली) मालूम होती है. इस तरह के बेशुमार लतीफे मजाज़ से मंसूब हैं. लेकिन इनके पीछे की तल्खी ये है कि इन्हें कहने वाला पूरी ज़िन्दगी बेहद दुखी रहा.
     उर्दू के जॉन कीट्स कहे जाने वाले असरार उल हक मजाज़ की पैदाइश १९११ में रुदौली कस्बे में हुई थी. मजाज़ की शायरी को मुकाम अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय में मिला. यहाँ उस दौर में मशहूर शायरों की एक पूरी ज़मात थी जिनमें मोईन अहसन जज्बी, अली सरदार जाफरी और जांनिसार अख्तर भी शामिल थे. लेकिन इन सबमें जो नाम सबसे ज्यादा मकबूल हुआ वो मजाज़ लखनवी का ही था. अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का तराना भी मजाज़ का ही लिखा हुआ है. मजाज प्रगतिशीलता के सारे तत्वों के स्वाभाविक समर्थक थे. असल में नाजुक तबीयत वाले मजाज हर वंचित व्यक्ति से नजदीकी महसूस करते थे जिसे उसका बुनियादी हक नही मिला. यही निकटता उन्हे प्रगतिशीलता की राह पर गई. स्त्री मुक्ति और नारीवाद के जिस आन्दोलन की बात आज होती है उसे मजाज़ ३० के दशक में ही अपनी नज्मों के ज़रिये कह रहे थे. उनकी शायरी रूमानी होते हुए भी औरत को किसी दूसरे जहाँ की शै नहीं मानती थी. एक बार मशहूर फिल्म अभिनेत्री नर्गिस जब लखनऊ आईं तो मजाज़ का औटोग्राफ लेने गयीं थीं. नर्गिस के सर पर तब सफ़ेद दुपट्टा था इसपर मजाज़ ने नर्गिस की डायरी पर अपने दस्तखत के साथ अपना ये शेर लिख दिया था- "तेरे माथे पे यह आँचल बहुत ही ख़ूब है लेकिनतू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था". कम ही लोग जानते हैं कि रूदौली में मजाज साहब के पुश्तैनी घर में आज एक लड़कियों का स्कूल चल रहा है.

मजाज़ तरक्कीपसंद शायरों में होते हुए भी अपनी रूमानियत के चलते अलग ही नज़र आते हैं. फैज़ अहमद फैज़ उनके बारे में लिखते हैं- "मजाज़ की इन्कलाबियत आम इंकलाबी शायरों से अलग है. आम इंकलाबी शायर इन्कलाब को लेकर गरजते हैं, सीना कूटते हैं इन्कलाब के मुताल्लिक गा नहीं सकते. वे इन्कलाब की भीषणता को देखते हैं उसके हुस्न को नहीं पहचानते." मजाज़ की शायरी अलफ़ाज़ की कारीगरी से नहीं बनती, वहां भावों की सहज आमद है. इसीलिए रूमानी शायरी में तो वो कीट्स का दर्जा रखते ही हैं. तरक्कीपसंद शायरी में मजाज़ ज़रा भी बनावटी नहीं लगते.

मजाज़ की शायरी की गहरी समझ रखने वाले मोहसिन जमाल कहते हैं - अगर मजाज़ को उतनी लम्बी उम्र मिली होती जितनी उसके साथ के बाकी शायरों को मिली तो इसमें कोई शक नहीं की मजाज़ का नाम ग़ालिब इकबाल के बाद मकाम पाता. ये भी एक दुखद बात है कि मजाज़ की मौत उसी चीज़ के अभाव में हुई जिसकी उसके जीवन में सबसे ज्यादा अधिकता थी. यानी स्त्री. मजाज़ जोहरा नाम की एक लड़की से प्रेम करते थे लेकिन उसकी शादी उनसे न हो सकी. इसके बाद मजाज़ ने अपनी ज़िन्दगी को शराब में डुबो दिया. इश्क में कामयाब न होने के बाद मजाज़ ने गमे जाना को गमे दौरां में मिलाकर ज़माने को शायरी के यादगार जाम पेश किए. मजाज़ को याद करते हुए उनकी भतीजी सहबा अली कहती हैं- "मजाज़ साहब की सरलता का अगर लोगों ने गलत फायदा न उठाया होता तो हम इतनी जल्दी उस बड़े शायर से महरूम न होते.” जोश मलीहाबादी ने एक बार मजाज को सामने घड़ी रखकर पीने की सलाह दी तो मजाज़ ने कहा आप घडी रखके पीते हैं मैं घड़ा रखके पीता हूँ.

लेकिन बेतहाशा शराबनोशी ने मजाज को मौत के मुहाने पर लाकर छोड़ा था. कई बार वे पागलपन के दौरे के शिकार हो चुके थे. और दिसंबर 1955 में जबकि वे शराब पीना लगभग छोड़ चुके थे, उनके ‘दोस्तों’ ने उन्हे एक बार फिर जाम पकड़ा दिया और फिर नशे की हालत में कड़ाके की ठंड में लखनऊ के एक शराबखाने की छत पर छोड़कर चले आए. सुबह होने और बलरामपुर अस्पताल पहुंचने तक वे गुजर चुके थे. मजाज की मौत के बाद उनपर जितना लिखा पढा गया उतना उर्दू के किसी शायर के इंतकाल के बाद नही हुआ. 2006 में भारत सरकार ने मजाज की याद में एक डाक टिकट भी जारी किया. लखनऊ में मजाज की खस्ताहाल कब्र पर एक शेर लिखा है-

"अब इसके बाद सुबह है और सुबह-ए-नौ मजाज, हम पर है खत्म शामे गरीबाने लखनऊ..."

- हिमांशु बाजपेयी (ये रिपोर्ट तहलका में छप चुकी है. लेखक तहलका के उत्तर प्रदेश संवाददाता और लखनऊ के शैदाई हैं)

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