शुक्रवार, 1 नवंबर 2013

अगर मगर तगर के सवाल











                   
     





              अगर, मगर, तगर का कोई एक सही जबाब नहीं हो सकता है लेकिन कुछ लोग हैं जो ऐसे सवाल उठाते ही रहते हैं .जैसे आजकल ये कहा जा रहा है कि अगर नेहरु की जगह सरदार पटेल भारत के पहले प्रधान मंत्री होते तो भारत ज्यादा शक्तिशाली देश होता और कई ऐसी समस्याएं जो आज तक नहीं सुलझी हैं वो पैदा ही नहीं होने पाती .
 ऐसा कहकर ये लोग यह साबित करना चाहते हैं कि स्वाधीनता आंदोलन के नायक मंदबुद्धि थे जिन्होंने नेहरु को देश का प्रधान मंत्री बनाने का निर्णय लिया और वे स्वयं ज्यादा समझदार और दूरदर्शी  विचारक  हैं उनकी राय  से  देश का नेता चुना जाना चाहिए था .
      उनकी समझदारी  और दूरदर्शिता का सबसे बड़ा प्रमाण यही है कि वे स्वतंत्रता आंदोलन  से दूर रहे और स्वतंत्रता के बाद की स्थिति  का लाभ  उठाने  के लिए  स्वयं को संगठित  करते रहे. जब सारा देश आजादी की लड़ाई में जूझ रहा हो तब थोड़ी संगठित शक्ति को रिजर्व रखना कोई बुरी बात नहीं है, ये उस संगठन   के नेताओं की देशभक्ति और दूरदर्शिता को ही दर्शाता  है. इसका मौका भी जल्द ही आ गया .उन्होंने भारत का बंटवारा होते ही अपने संगठन को पूरी ताकत से पाकिस्तान से आये शरणार्थियों की मदद के नाम पर भारत से पलायन कर रहे लोगों की जन धन की लूट में लगा दिया. साथ ही ऐसे कारनामों को बढ़ चढ़कर अंजाम दिया जिससे ज्यादा से ज्यादा लोग भारत से पलायन  करने के लिए मजबूर किये जा सकें. किन्तु  सरदार पटेल ने उनकी इन हरकतों पर सख्ती से रोक लगा दी थी .
       दूसरा बड़ा काम इन लोगों ने यह किया कि उन्होंने महात्मा गांधी की हत्या का घृणित  षडयंत्र किया . ये लोग इस बात से बहुत क्षुब्ध थे कि महात्मा गांधी ने ये घोषणा की है कि वे भारत में शान्ति स्थापित होने के बाद पाकिस्तान में शान्ति की स्थापना के लिए जायेंगे.  इन लोगों को मानना था कि अगर महात्मा गांधी  भारत की तरह पाकिस्तान में भी साम्प्रादायिकता  के जहर को रोकने  में कामियाब  हो गए तो फिर  उनका संगठन भारत में क्या करेगा ? उनके  संगठन  के फलने फूलने के लिए ये जरुरी था कि हिन्दू और मुसलमानों के बीच साम्प्रादायिक तनाव और उपद्रव होता रहे जिसमें  उनका सबसे बड़ा मददगार पाकिस्तान ही हो सकता था जहाँ हिन्दूओं को बेरहमी से लूटा मारा जा रहा था.
   सरदार पटेल जो उस समय भारत के गृह मंत्री थे तथा जो भारत की आतंरिक सुरक्षा के लिए जिम्मेदार थे, उन्होंने भारत में इनके संगठन आर० एस० एस० और उसके कर्ताधर्ताओं को शान्ति और क़ानून व्यवस्था के लिए सबसे बड़ा खतरा माना और बिना किसी हिचक के इन पर प्रतिबन्ध लगाते हुए इन्हें जेलों में ठूँस दिया.  इन्हें तभी मुक्त किया जब इन्होंने स्वयं को सामाजिक और सांस्कृतिक कार्यों तक सीमित रखने  का लिखित आश्वाशन भारत सरकार को दे दिया .
अब यही लोग कहते हैं कि भारत का पहला प्रधान मंत्री सरदार पटेल को होना चाहिए था . मान लीजिये ऐसा हो जाता तो क्या पटेल इन्हें भारत में सांप्रदायिक उपद्रव फैलाने की छूट दे देते ?क्या ये लोग सावरकर और हेडगॅवार  के पीछे चलना बंद कर देते ?
         अगर ये नहीं वो प्रधानमंत्री होता तो अच्छा होता .ऐसे सवाल काल्पनिक हैं .क्यूँकि ऐसे बहुत से चमकदार व्यक्तित्व हैं जिनका नाम लिया जा सकता है. जैसे जय प्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया, पुरुषोत्तम दास टंडन आदि आदि .लोग तो ये भी कहते हैं कि अगर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस होते तो वही भारत के पहले प्रधान मंत्री होते.


   ये सवाल बहुत दूर तक ले जाया जा सकता है और इसमें भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद आदि किसी का भी नाम जोड़ा जा सकता है.क्योंकि इच्छा  व्यक्त करने पर तो किसी की कोई रोक हो नहीं सकती है.इस प्रकार ये सवाल जो बड़ी गम्भीरता से उठाया जाता है, बड़ा ही हास्यास्पद हो जाता है . पंडित नेहरु के सम्बन्ध  में अगर हम भगत सिंह के विचारों को जान लें तो हमें ये समझने में आसानी  होगी कि नेहरु ही सबसे ज्यादा प्रगतिशील सोच के नेता थे . अत: भारत के प्रथम प्रधान मंत्री के रूप में उनका चयन बिलकुल सही था .
  आज कुछ लोगों ने ये सवाल भी उठाना शरू कर दिया है कि सबका नाम लिया जा रहा है लेकिन डा0 अम्बेडकर  का नाम क्यूँ नहीं लिया जा रहा है ? क्या वे योग्य व्यक्ति नहीं थे ? अगर वे भारत के प्रथम प्रधानमंत्री होते तो क्या आज भारत समग्र रूप से शक्तिशाली और आधुनिक राष्ट्र न होता. सवाल मौजूँ है और इसका जबाब उन लोगों को अवश्य देना चाहिए जो एक साँस में सरदार पटेल, जयप्रकाश नारायण और डा० अम्बेडकर के  नाम की माला जप रहें हैं .
          इनमें से कोई भी महापुरुष ऐसा नहीं है जिसके  वारिस होने का ये हक़ जता सकें .सरदार पटेल किसानों के नेता थे जबकि इनके राज्य  में किसान तबाह हैं .किसान औरतें अपने खून से चिट्ठी लिख लिख कर गुहार लगा रही हैं लेकिन राज्य के मुख्यमंत्री को कोई परवाह नहीं है. वो प्रधानमंत्री बनाने का ख्वाब देखने में मस्त  है .  कच्छ में खेती किसानी कर गुजर बसर कर रहे सिख परिवारों को खदेड़ा जा रहा है .समजवादी ये है ही नहीं इसलिए जयप्रकाश नारायण का नाम लेने का कोई अर्थ नहीं है .जब ये स्वयं उनकी विचारधारा को नहीं स्वीकारते तो दूसरे उसे माने या ना मानें इसे उन्हें क्या मतलब है ?
     इनके शासन में दलितों और आदिवासियों के मुँह का कोर छीनकर टाटा और अम्बानियों के पेट फुलायें जा रहें हैं. इसलिए डा० अम्बेडकर का तो ये नाम लेने के  भी लायक नहीं हैं .
समझ में नहीं आता कि ये  दावा क्यूँ नहीं करते हैं कि भारत का पहला प्रधानमंत्री सावरकर को होना चाहिए था जिनके देश भक्त होने का प्रमाण पत्र  भी दिखाया  जा सकता  है.या जनसंघ के संस्थापक  श्यामा प्रसाद मुखर्जी का नाम लेना चाहिए था जो उस समय कांग्रेस में ही थे .लेकिन श्यामा प्रसाद मुखर्जी का नाम लेकर इन्हें क्या मिलेगा ? उनके नाम पर न बंगाल में वोट मिलेगी जहाँ वो पैदा हुए और न कश्मीर में मिलेगी जहाँ वो मरे. उन्हें तो गुजरातियों को वही खवाब दिखाना है जो दिल्ली पर राज करने का मराठे देखते आयें हैं.ध्यान रहे शिवाजी के समय से मराठों की एक ही ख्वाहिश  रही है कि वो दिल्ली पर राज करें. आर० एस०  एस०मूलत: एक मराठा संगठन है और इस चाहत को मूर्त रूप देने के लिए ही कार्य करता है .यही कारण है कि उसके शीर्ष कर्ता धर्ता मराठी होते हैं और वो चाहता है कि भारत  का प्रधानमंत्री एक मराठी हो .इसी सोच के तहत नितिन गडकरी  को भाजपा  का अध्यक्ष  बनाया  गया था लेकिन वो भ्रष्टाचार  के लपेटे में आ गया .कहते हैं कि उसे लपेटने में मोदी का ही हाथ था .इसीलिए मोदी संघ की स्वभाविक पसंद नहीं है .मोदी मजबूरी का नाम है .वो सबको जबरन ठेलकर आगे आया है . संघ के लिए मोदी पर लगाम कसना आसान नहीं है लेकिन उसकी मजबूरी है कि इस चुनाव तक उसे मोदी को सहन करना होगा .जब सत्ता सीधे सीधे हाथ में आने की आशा न हो तो उसके पीछे खड़े रहने में समझदारी होती है .संघ इसी सोच के तहत काम  कर रहा है.
संघ क्षेत्रवाद का वो तम्बू है जिसे हिंदुत्तव  के रंग से सजाया संवारा  गया है.

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