अगर ऐसा कुछ नहीं हो सकता है तो क्या ये देश भक्ति के काम नहीं हैं ? क्या मूर्ती और स्मारकों का निर्माण ही देशभक्ति है? इससे देश को क्या लाभ होगा ? क्या इससे भारत अधिक सशक्त हो जाएगा ? भारत भारतीयों के समृद्ध और सशक्त होने से ही सशक्त होगा, पत्थर की मूर्तियां बनाने से नहीं हो सकता है .
लोग उत्तर प्रदेश मायावती के द्वारा संग मरमर के हाथियों के निर्माण का जिक्र करेगें लेकिन मायावती जी के कारनामों से ही तो ऐसी सोच का जन्म हुआ है .वरना गाँधी, अम्बेडकर और सुभाष की मूर्तियाँ पहले से लग रहीं हैं किसी ने कभी कोई सवाल नहीं उठाया है . मूर्ती बनाने पर आज भी आपत्ति नहीं है ,सवाल इस बेतहाशा सरकारी खर्च को लेकर है .यह जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा है इसे मूर्तियों के निर्माण पर खर्च करना अपराध है .
यह बात सबके सन्दर्भ में लागू होती है . सरदार पटेल की मूर्ति भी अनेक जगह हैं . जो हैं वो रहेंगी लेकिन आगे से सरकारी खर्चे पर नहीं लगाई जानी चाहियें .
हाँ जी इन सबकी समाधि बनाना गलत है .अब क्यूँकि पहले गलती हो चुकी है इसलिए आपका हक़ तो बनता है लेकिन अगर आप यह गलती न दोहरायें तो बेहतर होता .लेकिन गलत काम तो सबसे पहले अच्छे लगते हैं .कांग्रेस ने बहुत सारे अच्छे काम भी किये हैं उन्हें भी याद करना चाहिए .वामपंथियों ने क्या सही किया और क्या गलत किया इस पर तब बहस करना ठीक रहता जब वे केंद्र में सत्ता में होते.कुछ तो उनकी मजबूरियाँ थीें और कुछ उनकी गलतियाँ जिनका खामियाजा वही नहीं सारे देश के मेहनतकश भुगत रहें हैं. पश्चिमी बंगाल के हालात बता रहें हैं कि ममता बनर्जी के राज में भी सब कुछ ठीक नहीं है.
इससे इंकार नहीं किया जा सकता है कि इस मूर्ती के बनाने से पर्यटन बढ़ेगा लेकिन उसका लाभ आम जनता को नहीं मिलेगा. विदेशी सैलानियों के ऐशो आराम के लिए होटल वगैरह के लिए किसानों की जमीने जाएंगी और देशी धन्नासेठों को अपना कारोबार फैलाने का मौका मिलेगा. मैं फिर कहता हूँ कि अगर मूर्तियां बनाने से ही जन कल्याण होता हो तो हर गांव हर कसबे में ऐसी ही मूर्तियां बननी चाहियें.
वैसे सबसे ज्यादा पर्यटक तो ताजमहल देखने आते हैं जो एक मकबरा है .क्या आप मकबरें बनाया जाना पसंद करेंगे ?या खजुराहों जैसे मंदिर बनाना पसंद करेंगे जो और भी आकर्षक पर्यटन स्थल है ?
प्रतिमा निर्माण के औचित्य को स्वीकार भी कर लूँ तो इसका सिलसिला तो बहुत आगे तक जा सकता है .क्या बंगाल की खाड़ी में या अंडमान निकोबार में नेताजी सुभाष चन्द्रे बॉस की, पंजाब में भगत सिंह की, उत्तर प्रदेश में चंद्रशेखर आजाद की, नागा लैंड में रानी गाडिगिलु की ,झारखंड में तिलका मांझी की ऐसी ही भव्य विशालकाय प्रतिमा स्थापित करना अच्छा न रहेगा ? पर्यटन का विकास तो वहाँ भी होना चाहिए .
इसी के साथ ये भी बता दीजियेगा की ऐसा करके हम राष्ट्रीय महापुरुषों को क्षेत्रीय दायरे में तो कैद नहीं कर रहे हैं ?
क्या यह उपयुक्त नहीं होगा कि अपने राज्य से बाहर इनकी प्रतिमा स्थापित की जाए ? इससे भी बेहतर यह होगा कि जिन स्थानों का इनके जीवन में ज्यादा महत्व रहा हो केवल वहीँ प्रतिमा स्थापित हो न कि जहाँ जगह दिखे वहीँ प्रतिमा खड़ी कर दी जाए .
भाई लोगों ने कहा है कि अमेरिका में 28 अक्टूबर 1886 को 93 मीटर एक मूर्ति का उद्घाटन हुआ था जिसका नाम है - 'स्टेचू ऑफ़ लिबर्टी' जिसको दुनिया भर से देखने पर्यटक जाते हैं .
भाई ये नहीं देख रहें हैं कि वो स्टेच्यू आफ लिबर्टी है ,स्वतंत्रता की प्रतीक .उन्होंने अपने महान राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन या वांशिगटन या मार्टिन लूथर किंग की प्रतिमा नहीं लगाई है .कुछ जगहों पर अपने महापुरुषों की प्रतिमाएं जरूर लगाईं होंगी लेकिन जिस तरह प्रतिमा मोह भारत के नेताओं में है वैसा वहाँ नहीं मिलेगा .
कलात्मक सौंदर्य को प्रदर्शित करने वाली या विज्ञान और तकनीक का प्रदर्शन करने वाली कला कृतियों का निर्माण अनेक देशों में किया जाता है वैसा ही कुछ होता तो ज्यादा अच्छा होता .
यूँ एथेंस के चौराहों पर भी अरस्तु और वाल्मीकि कि प्रतिमा स्थापित की गयी हैं जो उनके हृदय की विशालता और ज्ञान के प्रति उनके लगाव को प्रदर्शित करती हैं, जिसका हमारे देश में नितांत अभाव है .
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