सोमवार, 18 अगस्त 2014

मंहगाई डायन खाए जात है ?


      मंहगाई से कौन परेशान नहीं होता है .ख़ास तौर से खाने पीने की चीजें मंहगी होने को लेकर सभी हाय तौबा करते रहते हैं .जब से मैंने होश संभाला है तब से सभी को मंहगाई को कोसते पाया है .लेकिन मंहगाई हमेशा बढती ही रही है कभी कम नहीं हुई है .राजनीतिक दल भी जब विपक्ष में होते हैं तो मंहगाई के खिलाफ जनता को गोल बंद करते हैं और जब वे सत्ता में होते हैं मंहगाई के सामने नत मस्तक हो जाते हैं .जनता सबसे ज्यादा सब्जी ,अनाज यानी खाद्य पदार्थों और पेट्रोलियम पदार्थों के मंहगा होने से परेशान होती है.आजकल टमाटर और दालों के सौ रुपये किलो होने पर हा हाकार मचा हुआ है . लोग सोचते थे कि प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी लाल किले से भाषण देते समय महंगाई के खिलाफ कड़े कदम उठाने की घोषणा अवश्य करेंगे लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया. उन्होंने किसानों, मजदूरों, गरीबों के हित में भी कुछ नहीं कहा है. इसका मतलब है कि देश के मुखिया को उनकी कोई फ़िक्र नहीं है. लेकिन मामला बड़ा पेचीदा है.
इस मंहगाई को थोड़ा नजदीक से देखने परखने की जरुरत है .अगर खाने पीने की चीजें मंहगी हों तो उसके उत्पादकों यानी कि किसानों को फायदा होना चाहिए लेकिन ऐसा नहीं है .आज जितनी खराब हालत किसानों की है उतनी शायद किसी वर्ग की नहीं है .ऐसे किसान जिनकी किसी अन्य स्रोत से आय होती है भुखमरी के कगार पर पहुँच गए हैं . अब छोटे और मंझोले किसान की बात भी नहीं है .बड़े बड़े काश्तकारों की हालत खराब है .हमारा क्षेत्र जो उपजाऊ भूमि और सिंचाई की बेहतर सुविधाओं के कारण हमेशा से समृद्ध किसानों का क्षेत्र रहा है ,गन्ना,आलू और गेहूं जिसकी मुख्य फसल है आज बदहाल है . क्षेत्र की चीनी मिलों के मालिकों ने पिछले वर्ष के गन्ने के मूल्य का भुगतान अभी तक नहीं किया है जबकि किसान गन्ना सोसायटियों से लिए गए कर्ज पर चढ़ रहे ब्याज को लेकर चिंतित हैं .बिजली विभाग और बैंकों ने बकाया कर्ज की वसूली के लिए किसानों की पकड़ धकड़ शुरू कर दी है. जब किसान को अपने उत्पाद का मूल्य नहीं मिलेगा तो वो कैसे बीज खाद पेस्टीसाईट के लिए लिये गए कर्ज का भुगतान करेगा और किस प्रकार अपनी अन्य जरूरतों को पूरा कर सकेगा ?
यही नहीं चीनी मिल मालिकों ने अगले पेराई सत्र में चीनी मिल बंद रखने की घोषणा कर किसानों की चिंताएं और बढ़ा दी हैं . वैसे ही इस वर्ष किसानों ने गन्ने का रकबा बहुत कम कर दिया था कुछ किसानों ने तो गन्ना बिलकुल नहीं बोया है चाहे उन्हें अपने खेत खाली छोडने पड़े हैं . लेकिन ये कोई समस्या का समाधान नहीं है . लोग कहते हैं कि किसानों को गन्ना नहीं बोना चाहिए .लेकिन किसान क्या बोये ? गेहूं का जो भाव फसल में था आज उससे भी कम भाव पर गेहूं बिक रहा है लेकिन कोई ये नहीं कहता है कि मन्दी है बस सब मंहगाई का रोना रोयेंगे .रोना क्या रोयेंगे गाने बजाने लगेंगे मंहगाई डायन खाए जात है. भाई मंहगाई तो किसान को खा रही है .डीजल मंहगा है बिजली मंहगी है ,खाद मंहगी है पेस्टीसाईड मंहगें हैं .जबकि गन्ना सस्ता है .गेहूं सस्ता है , धान भी सस्ता है ,सरसों भी सस्ती ही रही, आलू सस्ता रहा अब भले ही वो मंहगा हो गया हो. टमाटर सडकों पर फेंकना पड़ता था अब पैदावार नहीं है तो मंहगा हो इससे क्या फर्क पड़ता है . क्या जिस तरह सरकारी कर्मचारियों को मंहगाई बढ़ने पर बढ़ा हुआ मंहगाई भत्ता मिलता है क्या उसी तरह किसानों को जिन्स के बेसिक मूल्य में उत्पादन की बढ़ी हुई लागत जोड़कर स्वत ही बढ़ा हुआ दाम नहीं दिया जाना चाहिए ? क्या किसानों को फसल की लागत से कम दाम देकर हम उसे आत्महया की और नहीं धकेल रहें हैं? क्या उसकी बर्बादी देश की बर्बादी नहीं है ? क्या किसान को बचाने का मतलब देश को बचाना नहीं है ? क्या देश भक्ति का मतलब केवल पड़ौसी मुल्क से भिड़े रहना ही है ?
अगर हम पानी की एक बोतल के लिए दस रुपये खर्च कर सकते हैं तो हमें एक रोटी के लिए भी दस रुपये खर्च करने की मानसिकता बनानी होगी. अगर हम सौ रुपये लीटर पेट्रोल खर्च करने को तैयार हैं तो हमें सौ रुपये लीटर दूध भी खरीदने के लिए तैयार होना चाहिए .क्यूँकि इन चीजों की उत्पादन लागत मंहगी हुई है लेकिन हम उसकी वो कीमत नहीं देना चाहते हैं जो किसान को बचाने के लिए जरुरी है . याद रखिये अगर खाने पीने की चीजें सस्ती हैं तो किसान को लागत मूल्य नहीं मिला है और अगर चीजें बहुत मंहगी हैं तो समझो किसान की फसल बर्बाद हो हुई है उसे या तो मौसम नई मारा है या फसल को कीड़ें खा गए हैं . दोनों ही स्थितियों में किसान का नुकसान हुआ है . किसान का भला तभी हो सकता है जब उसे उसकी फसल का वाजिब दाम मिलता रहे .अगर गरीब जनता को सस्ता खाद्यान्न देना है तो उसके लिये अन्य उपाय करने होंगे लेकिन इस बात का कोई औचित्य नहीं है कि एक अमीरजादा फाइव स्टार होटल में पांच सौ रुपये की खाने की थाली का भुगतान करे लेकिन उस थाली में परोसी जाने वाली रोटी के लिये अनाज पंद्रह रुपये किलो खरीदा जाए. कम से कम उसको तो अनाज सौ रुपये किलो दिया जाए ताकि गरीब को दो रुपये किलो दिया जा सके और किसान को तीस रुपये किलो के दाम मिलें जो उसका हक़ है . आज अगर आम आदमी सौ रुपये किलो टमाटर खरीद रहा है तो होटलवाले भी सौ रुपये किलो खरीद रहें हैं जबकि वो भोजन की एक थाली कम से कम पचास रुपये से लेकर पांच सौ रुपये में देते हैं .इसका मतलब है कि उनका अन्य खर्च और मुनाफा इतना ज्यादा है कि खाने की कीमते बहुत ज्यादा हो जाती है और लोग उसे शान से चुकाते भी हैं .लेकिन वही लोग जब खाना खाकर कार में बैठ कर घर आ रहें होते हैं तो टमाटर के मंहगा होने का रोना रोने लगते हैं .देश आम आदमी कि चिंता अब ऐसे ही लोग कर रहें हैं ,मुझे ऐसी चिंताओं और चिंतकों से कोई हमदर्दी नहीं है .मेरी निगाह में ये लोग देश के सबसे बड़े दुश्मन हैं ,आम आदमी के दुश्मन हैं किसान मजदूर के दुश्मन हैं .
Photo: मंहगाई डायन खाए जात है ?
मंहगाई से कौन परेशान नहीं होता है .ख़ास तौर से खाने पीने की चीजें मंहगी होने को लेकर सभी हाय तौबा करते रहते हैं .जब से मैंने होश संभाला है तब से सभी को मंहगाई को कोसते पाया है .लेकिन मंहगाई हमेशा बढती ही रही है कभी कम नहीं हुई है .राजनीतिक दल भी जब विपक्ष में होते हैं तो मंहगाई के खिलाफ जनता को गोल बंद करते हैं और जब वे सत्ता   में होते हैं मंहगाई के सामने  नत मस्तक हो जाते हैं .जनता सबसे ज्यादा सब्जी ,अनाज यानी खाद्य पदार्थों और पेट्रोलियम पदार्थों के मंहगा होने से परेशान होती है.आजकल टमाटर  और दालों के सौ रुपये किलो होने पर हा हाकार मचा हुआ है . लोग सोचते थे कि प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी लाल किले से भाषण देते समय महंगाई के खिलाफ कड़े कदम उठाने की घोषणा अवश्य करेंगे लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया. उन्होंने किसानों, मजदूरों, गरीबों  के हित में भी कुछ नहीं कहा है. इसका मतलब है कि देश के मुखिया को उनकी कोई फ़िक्र नहीं है. लेकिन मामला बड़ा पेचीदा है. 
    इस मंहगाई को थोड़ा नजदीक से देखने परखने की जरुरत है .अगर खाने पीने की चीजें मंहगी हों तो उसके उत्पादकों यानी कि किसानों को फायदा होना चाहिए लेकिन ऐसा नहीं है .आज जितनी खराब हालत किसानों की है उतनी शायद किसी वर्ग की नहीं है .ऐसे किसान जिनकी किसी  अन्य स्रोत से आय  होती है भुखमरी के कगार पर पहुँच गए  हैं . अब छोटे और मंझोले किसान की बात भी नहीं है .बड़े बड़े काश्तकारों की हालत खराब है .हमारा क्षेत्र जो उपजाऊ भूमि और सिंचाई की बेहतर सुविधाओं के कारण हमेशा से समृद्ध किसानों का क्षेत्र रहा है ,गन्ना,आलू और गेहूं जिसकी मुख्य फसल है आज बदहाल है . क्षेत्र की चीनी मिलों के मालिकों ने पिछले वर्ष के गन्ने के मूल्य का भुगतान अभी तक नहीं किया है जबकि किसान गन्ना सोसायटियों से लिए गए कर्ज पर चढ़ रहे ब्याज को लेकर चिंतित हैं .बिजली विभाग और बैंकों ने बकाया कर्ज की वसूली के लिए किसानों की पकड़ धकड़ शुरू कर दी है. जब किसान को अपने उत्पाद का मूल्य नहीं मिलेगा तो वो कैसे बीज खाद पेस्टीसाईट के लिए लिये गए कर्ज का भुगतान करेगा और किस प्रकार अपनी अन्य जरूरतों को पूरा कर सकेगा ? 
              यही नहीं चीनी मिल मालिकों ने अगले पेराई सत्र में चीनी मिल बंद रखने  की घोषणा कर किसानों की चिंताएं और बढ़ा दी हैं . वैसे ही इस वर्ष किसानों ने गन्ने का रकबा बहुत कम कर दिया था कुछ किसानों ने तो गन्ना बिलकुल नहीं बोया है चाहे उन्हें अपने खेत खाली छोडने पड़े हैं . लेकिन ये कोई समस्या का समाधान नहीं है . लोग कहते हैं कि किसानों को गन्ना नहीं  बोना चाहिए .लेकिन किसान क्या बोये ? गेहूं का जो भाव फसल में था आज उससे भी कम भाव पर गेहूं बिक रहा है लेकिन कोई ये नहीं कहता है कि मन्दी है बस सब मंहगाई का रोना रोयेंगे .रोना क्या रोयेंगे गाने बजाने लगेंगे मंहगाई डायन खाए जात है. भाई मंहगाई तो किसान को खा रही है .डीजल मंहगा है बिजली मंहगी है ,खाद मंहगी है पेस्टीसाईड मंहगें हैं .जबकि गन्ना सस्ता है .गेहूं सस्ता है , धान भी सस्ता है ,सरसों भी सस्ती ही रही, आलू सस्ता रहा अब भले ही वो मंहगा हो गया हो. टमाटर सडकों पर फेंकना पड़ता था अब पैदावार नहीं है तो मंहगा हो इससे क्या फर्क पड़ता है . क्या जिस तरह सरकारी कर्मचारियों को मंहगाई बढ़ने पर बढ़ा हुआ मंहगाई भत्ता मिलता है क्या उसी तरह किसानों को जिन्स के  बेसिक मूल्य में  उत्पादन की बढ़ी हुई लागत जोड़कर स्वत ही बढ़ा हुआ दाम नहीं दिया जाना चाहिए ?  क्या किसानों को फसल की  लागत से कम दाम देकर हम उसे आत्महया की और नहीं धकेल रहें हैं? क्या उसकी बर्बादी देश की बर्बादी नहीं है ? क्या किसान को बचाने का मतलब देश को बचाना नहीं है ?  क्या देश भक्ति का मतलब  केवल पड़ौसी मुल्क से भिड़े रहना ही है ?
      अगर हम पानी की एक बोतल के लिए दस रुपये खर्च कर सकते हैं तो हमें एक रोटी के लिए भी दस रुपये खर्च करने की मानसिकता बनानी होगी. अगर हम सौ रुपये लीटर पेट्रोल खर्च करने को तैयार हैं तो हमें सौ रुपये लीटर दूध भी खरीदने के लिए तैयार होना चाहिए .क्यूँकि इन चीजों की उत्पादन लागत  मंहगी हुई है लेकिन हम उसकी वो कीमत नहीं देना चाहते हैं जो किसान को बचाने के लिए जरुरी है .  याद रखिये अगर खाने पीने की चीजें सस्ती हैं तो किसान को लागत मूल्य नहीं मिला है और अगर चीजें बहुत मंहगी हैं तो समझो किसान की फसल बर्बाद हो हुई है उसे या तो मौसम नई मारा है या फसल को कीड़ें खा गए हैं . दोनों ही स्थितियों में किसान का नुकसान हुआ है . किसान का भला तभी हो सकता है जब उसे उसकी फसल का वाजिब दाम मिलता रहे .अगर गरीब जनता को सस्ता खाद्यान्न देना है तो उसके लिये अन्य उपाय करने होंगे लेकिन इस बात का कोई औचित्य नहीं है कि एक अमीरजादा फाइव स्टार होटल में पांच सौ रुपये की खाने की थाली का भुगतान करे लेकिन उस थाली में परोसी जाने वाली रोटी के लिये अनाज पंद्रह रुपये किलो खरीदा जाए. कम से कम उसको तो अनाज सौ रुपये किलो दिया जाए ताकि गरीब को दो रुपये किलो दिया जा सके और किसान को तीस रुपये किलो के दाम मिलें जो उसका हक़ है . आज अगर आम आदमी सौ रुपये किलो टमाटर खरीद रहा है तो होटलवाले भी सौ रुपये किलो खरीद रहें हैं जबकि वो भोजन की एक थाली कम से कम पचास रुपये से लेकर पांच सौ रुपये में देते हैं .इसका मतलब है कि उनका अन्य खर्च और मुनाफा इतना ज्यादा है कि खाने की कीमते बहुत ज्यादा हो जाती है और लोग उसे शान से चुकाते भी हैं .लेकिन वही लोग जब खाना खाकर कार में बैठ कर घर आ रहें होते हैं तो टमाटर के मंहगा होने का रोना रोने लगते हैं .देश आम आदमी कि चिंता अब ऐसे ही लोग कर रहें हैं ,मुझे ऐसी चिंताओं और चिंतकों से कोई हमदर्दी नहीं है .मेरी निगाह में ये लोग देश के सबसे बड़े दुश्मन हैं ,आम आदमी के दुश्मन हैं किसान मजदूर के दुश्मन हैं .

0 टिप्पणियाँ:

एक टिप्पणी भेजें