शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

'तू मूर्ख है '.

आज शिक्षक दिवस है .प्रधानमंत्री जी ने अपने तरीके से से शिक्षकों को याद किया . मुझे भी अपने  एक शिक्षक की याद बहुत जोरो से आ रही है . उनकी याद के साथ कुछ ऐसी घटना जुडी है कि  लिखे बगैर रहा नहीं जा रहा है . मैं नौवी कक्षा का छात्र था. हमारे एक बड़े ही सम्मानित  शिक्षक थे  जो हमें हिंदी और भूगोल पढ़ाते थे. उनकी पढ़ाने की शैली ऐसी थी कि जो पढ़ाते थे वो सीधे दिमाग में चिपक जाता था और वहाँ चिपक कर कुछ और पढ़ने के लिए उकसाता रहता था .
          एक दिन की बात है गुरूजी हमारी कक्षा  में पढ़ाने आये और बोले  'क्लास  के बाद सब बच्चे मेरे साथ चलेंगे .स्कूल के रास्ते में एक मस्जिद बनायी जा रही है हम सब वहाँ जाकर एक एक ईंट रखेंगे. '
          यूँ तो मैं उनका भक्त था और प्रिय शिष्य भी लेकिन उनकी इस बात ने मुझे बेचैन कर दिया. मैं उन दिनों आर एस एस की शाखा में जाया करता था और आचार्य चतुरसेन के उपन्यास पढ़ा करता था. आचार्य चतुरसेन के  कई उपन्यास हैं जिनमें मंदिरों के विध्वंस और राजपूतों के बलिदान की  गाथाएँ कुछ इस प्रकार अंकित की गयी हैं कि उसे पढ़कर मुसलमानों के प्रति सहज ही नफ़रत के भाव पैदा हो जाते हैं . इस प्रकार एक तरफ तो संघ के दुष्प्रचार का असर उस पर अपनी पढ़ाकू प्रव्रत्ति के कारण चतुरसेन जैसे साहित्यकारों के साहित्य का असर तथा अपनी बाली उमर. इन सबने मुझे कट्टर हिंदूवादी बना रखा था . मैंने पक्का निश्चय कर लिया कि मस्जिद बनाने के लिए श्रमदान नहीं करना  है .
    जैसे ही  बेला समाप्त हुयी और गुरूजी अपना वाचन समाप्त कर कक्षा से बाहर निकले मैंने उनके करीब पहुँच कर कहा -'गुरूजी जिन मुसलमानों ने हमारे मंदिरों को तोडा हम उनकी मस्जिद बनाने जायेंगे ?'
गुरूजी एक दम से रुक गए और बोले 'तू मूर्ख है.'
मैंने कहा -'वो कैसे गुरूजी ?
उनहोंने कहा 'बस मैंने कह दिया 'तू मूर्ख है '. इतना कहकर वो आगे बढ़ गए .
मेरा चेहरा उतर गया .मैं तो उनका प्रिय शिष्य था . मुझे विश्वाश था कि गुरूजी मेरी बात की ताईद करेगे. मेरे पीछे  मेरे सभी सहपाठी खड़े थे. वे बोले -'हममे से कोई भी नहीं जाएगा.'
मैं चुप रहा. लेकिन मस्जिद निर्माण में हाथ बंटाने कोई नहीं गया . गुरूजी ने भी कोई जिक्र नहीं किया .
इस घटना को बरसों गुजर गए. लेकिन मैं इसे भूला नहीं .मैं हमेशा सोचता रहता हूँ कि मुझे गुरूजी ने मूर्ख कहा है तो जरूर मेरी बात मूर्खता की रही होगी.
बड़े होने पर जैसे जैसे मेरे अध्ययन का दायरा विस्तृत हुआ मुझे समझ आ गया कि साम्प्रदायिकता का जहर बहुत गहराई तक हमारे समाज में फ़ैल गया है जिसके लिए वो लोग जिम्मेदार हैं जो हमारे समाज के स्वयंभू  रक्षक बने हुए हैं .हमारा बहुत सा साहित्य, हमारा इतिहास,  हमारी संस्थाएं  धीरे से  साम्प्रदायिकता के  इस जहर को ऐसे हमारे अन्दर भरती हैं कि हमें कुछ गलत होने का अनुभव ही नहीं होने पाता और हम उस जहर को अमृत समझकर पीते रहते हैं. अपनी मूर्खता का बोधा कराने और साम्प्रदायिकता के जहर को पहचानने  की द्रष्टि देने वाले अपने उस महान शिक्षक को मैं शिक्षक दिवस के पावन अवसर पर ह्रदय से नमन करता हूँ .         

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