तुम्हें मैं मिलूँगा हरेक मोड़ पर
कभी जब थकोगे, गिरोगे कहीं
तुम्हें थाम लूँगा मैं झुककर वहीँ
मगर जब तलक जंग जीतें न हम
रूकेगें नहीं हम, झुकेंगे नहीं
निराशा के बादल हों काले घने
मुखालिफ हो तूफ़ान जितने तने
मगर जो मशालें लिए हम चले
न होंगे कहीं गुम उन्हें छोड़कर .
तुम्हें मैं मिलूँगा हरेक मोड़ पर.
ये माना अभी स्याह ये रात है
उजाले की दिखती नहीं जात है
नजर आता हमको है ये भी नहीं
कहाँ गात है और कहाँ हाथ है ?
मगर ये अँधेरा अमर तो नहीं
रहेगा हमेशा ये डर तो नहीं ?
वो देखो उधर लाल सूरज उगा
अंधेंरे के सारे किले तोड़कर
तुम्हें मैं मिलूँगा हरेक मोड़ पर.
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें