मैं इक दिन सर-ज़मीने-हिन्द के बांके दिवानों।
कि बोला सरहदों से लौट्कार आते जवानों से ।।
कि बोला सरहदों से लौट्कार आते जवानों से ।।
बताओ जंग के मैंदान में क्या क्या गुज़रता है ।
तो इक बोला कि बतलाना ज़रा मुश्किल सा लगता है ॥
तो इक बोला कि बतलाना ज़रा मुश्किल सा लगता है ॥
मुकम्मल जंग के मंज़र तो बतलाए नहीं जाते।
फ़क़त महसूस हो सकते हैं दिखलाए नहीं जाते ॥
फ़क़त महसूस हो सकते हैं दिखलाए नहीं जाते ॥
मरह्म रक्खा है तुमने सरे ज़ख़्मों की दवा की है ।
मगर कुछ ज़ख़्म होते हैं जो सहलाए नहीं जाते ॥
मगर कुछ ज़ख़्म होते हैं जो सहलाए नहीं जाते ॥
कई ऐसे थे जिनकी चिठ्ठियाँ हर रोज़ आती थीं ।
किसी साथी की चिठ्ठी बस शहादत के ही बाद आई ॥
किसी साथी की चिठ्ठी बस शहादत के ही बाद आई ॥
कभी दुशमन की गोली और कभी रिश्ते सताते थे ।
तवज्जो सरहदों की दी अगर माँ की भी याद आई ॥
तवज्जो सरहदों की दी अगर माँ की भी याद आई ॥
क्या उन लम्हों को आँखें चाह कर भी भूल पाएंगी ।
कि जिन लम्हों में उठना बैठना चलना भी मुश्किल हो ॥
कि जिन लम्हों में उठना बैठना चलना भी मुश्किल हो ॥
इधर ज़ख़्मों में उठते दर्द से साथी तड़पते हों ।
निशाने पर उधर अम्नो-अमां का कोई क़ातिल हो॥
निशाने पर उधर अम्नो-अमां का कोई क़ातिल हो॥
वो जिनके डैम निकलने घडी नज़दीक होती थी ।
तुम्हें अब कैसे समझाएं वो किस हसरत से तकते थे॥
तुम्हें अब कैसे समझाएं वो किस हसरत से तकते थे॥
नज़र-अंदाज़ करके ख़्वाहिशें हर मरने वालों की ।
दिलों पे रखा के पत्थर दोस्त हम आगे को बढ़ाते थे॥
दिलों पे रखा के पत्थर दोस्त हम आगे को बढ़ाते थे॥
निगहबानों वतन के हम तुम्हारे साथ हैं हर दम ।
हमें जब मुल्क़ ये कहते हुए मालूम होता थ॥
हमें जब मुल्क़ ये कहते हुए मालूम होता थ॥
लहू दे कर ख़ुशी होती थी हमको जब लहू अपना ।
तुम्हारी आँख से बहते हुए मालूम होता थ॥
तुम्हारी आँख से बहते हुए मालूम होता थ॥
उधर की जंग हमने जीता ली इसकी ख़ुशी तो है ।
इधर इक जंग अपनों से अभी इस पार बाक़ी है॥
इधर इक जंग अपनों से अभी इस पार बाक़ी है॥
जिन्होंने सर किए हैं सरहदों के नाम वो जीते ।
जो ज़िंदा हैं उन्हें इक जीत की दरकार बाक़ी है ॥
जो ज़िंदा हैं उन्हें इक जीत की दरकार बाक़ी है ॥
जो लाशें रोंद कर दुश्मन की पत्थर हो गया सहिब।
हक़ीक़त ये है ये उस रोज़ पत्थर टूट जाएगा ॥
हक़ीक़त ये है ये उस रोज़ पत्थर टूट जाएगा ॥
शहीदाने-वतन के जब नज़र से गुज़रेंगे बच्चे ।
तो अच्छी-अच्छी आँखों से समंदर फूट जाएगा ॥
तो अच्छी-अच्छी आँखों से समंदर फूट जाएगा ॥
क़लमकारों तुम्हारा साथ गर मिलता रहा यूं ही ।
तो हो न हो सियासत का भी लश्कर साथ दे जाए ॥
तो हो न हो सियासत का भी लश्कर साथ दे जाए ॥
शहीदों के जो पीछे रह गए मासूम से बच्चे ।
तो हो सकता है उनका भी मुक़द्दर साथ दे जाए ॥
तो हो सकता है उनका भी मुक़द्दर साथ दे जाए ॥
यही उम्मीद थी हमको वतन के पासबानों से ।
मैं बोला सरहदों से लौटकर आते जवानों से ॥
मैं बोला सरहदों से लौटकर आते जवानों से ॥
रहेगा और क्या बाक़ी खबर ये तो नहीं लेकिन ।
तुम्हारी दास्तां होगी अलग सब दस्तानों से ॥
तुम्हारी दास्तां होगी अलग सब दस्तानों से ॥
मासूम ग़ाज़ियाबादी
9818370016
9818370016
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