शनिवार, 24 जनवरी 2015

नज्म-मासूम ग़ाज़ियाबादी

मैं इक दिन सर-ज़मीने-हिन्द के बांके दिवानों।
कि बोला सरहदों से लौट्कार आते जवानों से ।।
बताओ जंग के मैंदान में क्या क्या गुज़रता है ।
तो इक बोला कि बतलाना ज़रा मुश्किल सा लगता है ॥
मुकम्मल जंग के मंज़र तो बतलाए नहीं जाते।
फ़क़त महसूस हो सकते हैं दिखलाए नहीं जाते ॥
मरह्म रक्खा है तुमने सरे ज़ख़्मों की दवा की है ।
मगर कुछ ज़ख़्म होते हैं जो सहलाए नहीं जाते ॥
कई ऐसे थे जिनकी चिठ्ठियाँ हर रोज़ आती थीं ।
किसी साथी की चिठ्ठी बस शहादत के ही बाद आई ॥
कभी दुशमन की गोली और कभी रिश्ते सताते थे ।
तवज्जो सरहदों की दी अगर माँ की भी याद आई ॥
क्या उन लम्हों को आँखें चाह कर भी भूल पाएंगी ।
कि जिन लम्हों में उठना बैठना चलना भी मुश्किल हो ॥
इधर ज़ख़्मों में उठते दर्द से साथी तड़पते हों ।
निशाने पर उधर अम्नो-अमां का कोई क़ातिल हो॥
वो जिनके डैम निकलने घडी नज़दीक होती थी ।
तुम्हें अब कैसे समझाएं वो किस हसरत से तकते थे॥
नज़र-अंदाज़ करके ख़्वाहिशें हर मरने वालों की ।
दिलों पे रखा के पत्थर दोस्त हम आगे को बढ़ाते थे॥
निगहबानों वतन के हम तुम्हारे साथ हैं हर दम ।
हमें जब मुल्क़ ये कहते हुए मालूम होता थ॥
लहू दे कर ख़ुशी होती थी हमको जब लहू अपना ।
तुम्हारी आँख से बहते हुए मालूम होता थ॥
उधर की जंग हमने जीता ली इसकी ख़ुशी तो है ।
इधर इक जंग अपनों से अभी इस पार बाक़ी है॥
जिन्होंने सर किए हैं सरहदों के नाम वो जीते ।
जो ज़िंदा हैं उन्हें इक जीत की दरकार बाक़ी है ॥
जो लाशें रोंद कर दुश्मन की पत्थर हो गया सहिब।
हक़ीक़त ये है ये उस रोज़ पत्थर टूट जाएगा ॥
शहीदाने-वतन के जब नज़र से गुज़रेंगे बच्चे ।
तो अच्छी-अच्छी आँखों से समंदर फूट जाएगा ॥
क़लमकारों तुम्हारा साथ गर मिलता रहा यूं ही ।
तो हो न हो सियासत का भी लश्कर साथ दे जाए ॥
शहीदों के जो पीछे रह गए मासूम से बच्चे ।
तो हो सकता है उनका भी मुक़द्दर साथ दे जाए ॥
यही उम्मीद थी हमको वतन के पासबानों से ।
मैं बोला सरहदों से लौटकर आते जवानों से ॥
रहेगा और क्या बाक़ी खबर ये तो नहीं लेकिन ।
तुम्हारी दास्तां होगी अलग सब दस्तानों से ॥
मासूम ग़ाज़ियाबादी
9818370016

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