रविवार, 8 फ़रवरी 2015

ओ रे माँझी डुबा रहा है नैया क्यूँ मझधार में .




भाग रहा  है  क्या कांटें उग आये हैं पतवार में
ओ रे माँझी डुबा रहा है नैया क्यूँ मझधार में .

पहली पहली बार हुकूमत कैसी मुसहर ने देखी
बौराया कुछ किया नहीं बस सारे दिन मारे शेखी.
दिल्ली पहुँच गया भी तो क्या मंसूबे पूरे होंगे ?
मूलनिवासी दलितों के सब ख्वाब अधूरे ही होंगे .

ख्वाबो की तामीर करो कुछ क्या रखा तकरार में.
ओ रे माँझी डुबा रहा है नैया क्यूँ मझधार में .

दिल्ली पर वो राज करे जो फूट डालना जाने है
तुझको भी मालूम है ये फिर तू क्यूँ उसकी माने है
अच्छा भला बना बैठा था मुखिया पूरे राज का
जाने क्या सूझी बन बैठा भोजन भूखे बाज का .

दिल में खुशियाँ फूट रही हैं बैठे हुये सियार में.
ओ रे माँझी डुबा रहा है नैया क्यूँ मझधार में .

दरबारों ने झाड़ूमारों को कब इज्जत बक्शी है
उनके जूते पर ही सबकी सारी इज्जत रखी  है .
तुमको केवल काम मिलेगा जूतों को चमकाने का
आते जाते दरबारों में उनको शीश झुकाने का .

तुम दरबान बनोगे ना कि दरबारी दरबार में .
ओ रे माँझी डुबा रहा है नैया क्यूँ मझधार में .




       

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