रविवार, 19 अप्रैल 2015

'काफिर कौन?'------हसीब आसिफ




एक सच्चे मुसलमान को कैसे मूतना चाहिए ?
पकिस्तान के मशहूर व्यंगकार हसीब  आसिफ  की
पोस्ट प्रस्तुत है

पाकिस्तान नामक महान इस्लामिक रियासत  में एक मुत्तकी (संयमी, ious) शहरी नेशिकायात दर्ज कराई कि रियासत द्वारा सू सू (पेशाब) करने के मजहबी, मशरू (शरिया कानून के अनुसार) तरीका तय न करने की वजह से मुल्क मेंमनमानी और आजादी खयाली बढ़ रही है।
   पेशाब घरो में बोहरान मचा हुआ है शहरी ने याद दिलाया कि इस्लामिक रवायात की अगर पासदारी न की गयी तो अवाम को दोजख में अनेक कष्ट झेलने पड़ सकते हैं। गलत तरीके से अपना गुर्दा खाली करने पर अल्लाह की नाराजगी मोल लेनी पड़ सकती है। इन शिकायात पर फ़ौरन तवज्जो देते हुये मजहबी उल्मा की तरफ़ से फ़ौरन इजलास (मीटिंग) बुलाया गया।
रियासत के सरबराह(मुखिया) द्वारा बजाबता (कानूनी) तौर पर सबको इसमे  मुनाकिद (उपस्थित) होने का हुक्म फ़रमाया गया। साथ ही उल्मा को फ़ैसला होने तक सू-सू न करने का आदेश सुनाया गया। आखिर बिना
जायज तरीके को तय किये सू-सू करना इस्लाम की खिलाफ़वरजी होती। जिसकी सजा पत्थर मार मार कर मौत होती है। एक अखबार ने बड़ी होशियारी का मुजहिरा करते हुये लिखा कि इसे किडनी-स्टॊन- मौत कहा जा सकता है।
 अब मामला फ़ौरी तौर पर हल किया जाना जुरूरी था, खास कर इजलास के प्रमुख के लिये जो इसलास में आने से पहले फ़ारिग होने में नाकाम रहे
थे। गौर करने वाली बातें अनेक थीं मसलन किस तरह सू-सू करना जायज है? खड़े होकर, बैठ कर, दौड़ते/चलते हुये या किसी दीगर पोजीशन में।
क्या किसी खास दिशा में करना चाहिये? किस वक्त करना चाहिये? किस जगह करना जायज है? हफ़्ते के किन दिनों में करना चाहिये? सुबह करना चाहिये या शाम को? क्या काम करने की जगह पर करें, जैसे की मीटिंग में माफ़ी मांग कर निकल कर? क्या कोई खास अवसर ऐसे है जिनमें सू-सू करना जरूरी है? क्या उस समय सीटी बजाई जा सकती है या पूरा गाना ही गाया जा सकता है? सू-सू करने के बाद पैंट तो चढ़ाना ही है लेकिन क्या उसके पहले आखिरी बूंद तक जमीन मे गिराना जुरूरी है? क्या गिराने के
लिये हिलाना जायज है? कितनी जोर से हिलाने तक की इजाजत है?
इजलास के प्रमुख ने मामले को जल्द से जल्द निपटाने के लिये दो प्रमुख मसले तय कर दिये।
पहला था छिपाव(कोई देखे न) दूसरा था तहरात (पवित्रता)। वहाबी जरिये के उल्मा का खयाल था कि जमीन से जितना नजदीक हो सके करना चाहिये(उकड़ू बैठ कर) और खड़े होकर करने वालों को दोजख नसीब होगा।
क्योंकि जन्नत में पेशाब घर का कोई जिक्र नहीं दिया गया है। इसकेअलावा किसी की नजर में नही आना चाहिये, खुद भी नीचे नही देखना चाहिये। यदि आप किसी ऐसी जगह मौजूद नही है तो सू-सू करने के बजाये खुदा से प्रार्थना करनी चाहिये कि वह तकलीफ़ बर्दाश्त करने की सलाहियत(काबिलियत) दे।
देवबंदी नजरिया-ए- फ़िकर के उल्मा न दिखने पर जोर नहीं दे रहे थे। उनका ख्याल था कि नीचे देखने में कोई हर्ज नही। उनका यह कहना था कि
दूसरो को दिख जाये उसमें भी कोई हर्ज नही,खाली दूसरों के उपर सू-सू करना कुफ़्र है। बरेलवी उल्मा खड़े होकर करने पर भी कोई एतराज नहीं
कर रहे थे उनके हिसाब से तब तक जायज है जब तक बूंदे खुद पर न गिरे। उनके हिसाब से पोजीशन से कोई खास नही फ़र्क पड़ता है। इजलास के
मुखिया ने ध्यान दिलाया कि खड़े होने से बूंदो के जमीन से ऊछल पैरो पर पड़ने का खतरा मौजूद होगा। एक मुफ़्ती ने खड़े होकर करने की सूरत पर एक पैर हवा में उठाकर करने की राय दी।
दूसरे का मशवरा था कि ऐसे सूरत में दोनो पैर हवा मे उठाना ज्यादा सुरक्षित होगा।
बजाहिर तात्तुल (रूकावट) आ जाने के कारण इजलास प्रमुख ने इस बहस को मुंतकिल (बदल) कर दिया गया।। अगले मुद्दे पर वहाबियो ने फ़िर
पहले अपनी राय रखी। उनके हिसाब से किबला (काबा, मक्का) की दिशा में सू-सू नहीं की जा सकती और ना ही उसकी ओर पीठ दिखाई जा सकती है। यहां तक कि किबला को बायीं या दायीं दिशा में भी नही रखा जा सकता क्यों कि ऐसी सूरत में सू-सू करने की कवायद किबला की ओर से देखी जा सकती है जो कि गैर मुनासिब होगा। आखिर इस हरकत के दौरान निकलने वाले नापाक तरंगे पाक जगह की पाकीजगी कम जो कर सकती हैं। लेकिन
वहाबियो ने अपने आप को नामुमकिन सूरते हाल में डाल दिया था। आखिर किसी न किसी दिशा में तो सू-सू करना ही पड़ता। इस पर राय देते हुये तबलीगी जमात के मुफ़्ती नें सुझाया कि आसमान की तरफ़ हवा में सू-सू करना बेहतर होगा। लेकिन दूसरे ने मशवरे का विरोध करते हुये कहा कि ऐसा से करने वाले के चेहरे पर वापिस कर गिरने इमकान ( संभावना) मौजूद होगा। इस पर एक मुफ़्ती नें राय दी की चारो तरफ़ बिना रूके
चक्कर लगा कर करने को जायज करार दिया जा सकता है। इससे किसी भी पाक दिशा की तरफ़ लगातार करने से बचा जा सकता है।इस पर सारे उल्मा चक्कर का अहसास करने लगे और उन्होने मशवरे को सू-सू करने की कवायद की ओर मुंतकिल कर दिया। एक उल्मा की राय थी कि आदमी को अपने उजू तनासुल ( प्रजनन के हथियार) को दायें हाथ से नहीं पकड़ना चाहिये। दूसरा उसे बायें हांथ से पकड़ने के खिलाफ़ था। तीसरा उसे किसी भी हाथ से पकड़ने को कुफ़्र करार दे रहा था। लेकिन इस में बूंदो के शरीर पर गिरने का खतरा लाजिमी था सो तबलीगी जमात के मुफ़्ती ने सबसे मशवरा मांगा कि क्या किसी और को पकड़ाना जायज होगा। लेकिन
इस मशवरे को सुनते ही सभी उल्मा ने तुरत मसले को मुंतकिल कर दिया। बिना किसी को दिखे सू-सू करने के मसले पर फ़िक्रमंद एक मुफ़्ती ने
शंका जाहिर कि आखिर हर बार सू-सू करने के लिये के लिये विलाईजेशन किस तरह छोड़ी जा सकती है और गुफ़ा किस तरह तलाशी जा सकती है? इस भीड़ भाड़ वाली दुनिया में दीवाल की तरफ़ मुंह कर लाईन बना सू-सू करने को जायज करार दिया जाना ही चाहिये।
लेकिन ज्यादा कदामत (इस्लाम को शुद्ध तरीके से मानने) वाले उल्मा ने पब्लिक टायलेट की संभावना को ही खारिज कर दिया।हालांकि अब तक सब के गुर्दे भर चुके थे और वे सब इस पहली बात पर सहमत थे कि चलती सड़क के बीच में सू-सू करना कुफ़्र है।
सब्र एक नेमत है और कितनी भी तकलीफ़ में आदमी हो पर पूरे मामले सुलझे बिना इजलास खत्म नही हो सकता था। रियासत के सरबराह की बाते भी सब को याद थी। अल्लाह सब्र का इम्तेहान
तो लेता ही है। सब्र रखना अच्छे मुसलमान की निशानी जो है। एक मुफ़्ती ने सुझाया के सू-सू करने के लिये अपनी बारी का इंतजार करते हुये
“अरे भाई क्या पूरा दिन लगाओगे” या ” दूसरों को भी जाना है भाई” कहना जायज करार देना चाहिये। लेकिन बाकि मुफ़्ती इसके  खिलाफ़ थे आखिर सब्र कि खिलाफ़वरजी करना सच्चे मुसलमान को शोभा जो नही देता।
उन्होने तय पाया कि अपनी बारी का इंतजार करते हुये तीन बार हौले से दस्तक देना ही सही है। सू-सू करते हुये सलाम दुआ करना भी कुफ़्र करार
दिया गया। साथ ही संडास मे बढ़ती हुई तेल की क़ीमतों या ताज़ा तरीन सियासी स्कैंडल के बारे में कोई बातचीत नाजायज ठहरा दी गयी। केवल बेहद जुरूरी बातो को करने की ही इजाजत फ़रहाम की गयी। मसलन “क्या आप बाहर निकलेंगे” या “मै नही समझता कि इस कमोड का इस्तेमाल एक साथ दो लोग कर सकते है।”
सू-सू करने के दौरान बूंदे शरीर पर गिर जाने की सूरत में क्या करना चाहिये इस पर जुरूर कुछ विवाद हुआ। एक मुफ़्ती का कहना था कि
ऐसी सूरत में तीन से जियादा बार धोना चाहिये। एक फ़िरका सम संख्या में धोने की वकालत कर रहा था तो दूसरा विषम संख्या में।
एक ने साबुन के इस्तेमाल को जुरूरी करार दिया तो कुछ कपड़ा धोने के पाउडर को गंदगी दूर करने का बेहतर उपाय बता रहे थे। वहाबी फ़िरका
सल्फ़्यूरिक एसिड के इस्तेमाल पर आमादा था।
लेकिन खुदा का खौफ़ याद कराते हुये उन्हे आखिरकार इस मामले में बाकि फ़िरको से सहमत होने पर मजबूर कर दिया गया। बाकि मामलो मे आम सहमति थी जैसे रूके हुये पानी मे नही करना चाहिये, तेज भड़की आग पर भी नहीं करना चाहिये, बिजली के उपकरणो पर भी नहीं करना चाहिये। तेज तूफ़ान की सूरत में खुले आसमान की नीचे सु सु करने पर भी पाबंदी लगा दी गयी। बशर्ते किसी को अल्लाह से मिलने की जल्दी न हो।
खैर इस तरह इजलास पूरा हुआ, महान इस्लामिक रियासत के सरबराह को आम सहमती वाले मुद्दे भेज दिये गये और बाकि पर कहा गया कि इस
का खुलासा तालिबे-ए-इल्म को जुमे की नमाज के बाद मुल्लाओं द्वारा कर दिया जायेगा ताकि शको-शुबहात की गुंजाईश न रहे। 
 एक कौमी अखबार ने खबर छापी कि पाकिस्तान मे कौमी कययती(एकता) का जबरदस्त मुजाहिरा किया गया। इजलास के बाद इजलास के प्रमुख के पीछे सभी फ़िरकों के उल्मा और मुफ़्ती लाईन बना कर भाईचारे से फ़ारिग
होते नजर आये थे। फ़ारिग होने के बाद सब ने एक दूसरे का हाथ पकड़ नारा लगाया
“पाकिस्तान जिंदाबाद।”
         लेखक – हसीब आसिफ़
[हसीब एक जबरदस्त व्यंग्यकार रचनाकार और आलोचक हैं। वे महज पच्चीस साल की उम्र मे अपनी बेबाक राय पाकिस्तान के युवाओं और
मुसलमानो का जीवन हराम करने वाली ताकतो पर छींटाकशी करने मे कोई कसर नही छोड़ते। भारत की आउटलुक जैसी अंग्रेजी मैग्जीन मे उनके लेख शाया होते रहते है। हसीब को अफ़सोस था कि वे सोचते और बोलते पंजाबी मेहै लेकिन लिख पंजाबी मे नही सकते। इन दिनो वे गुरूमुखी सीख रहे है। फ़िलहाल उनके व्यंग्य अंग्रेजी मे है जो बकौल उनके उन्हे बिल्कुल भी
नही आती। पाकिस्तान जैसे कट्टरपंथी मुल्क मे जिस बेबाकी से वे लिखते है वह उनके पाठको को भी उनकी सुरक्षा के लिये चिंतित होना
स्वाभाविक है.]
        ---- दिनेश कुमार प्रजापति‎ 

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