शनिवार, 22 अगस्त 2015

'समानता और शिक्षा का अधिकार'


माननीय इलाहबाद हाई कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला--- 'सरकारी स्कूलों में पढें अधिकरियों कर्मचारियों के बच्चे'

ये फैसला अच्छा तो लेकिन इतना अच्छा भी नहीं है कि इसकी सराहना की जाये। ये बस इस मायने में ही अच्छा है कि इसने सरकारी शिक्षा व्यवस्था/ अव्यवस्था की दुखती रग को पकडा है, लेकिन ये इसका कोई इलाज नहीं है। जैसा कि हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश मार्कण्डेय काटजू ने कहा है कि कानून में ऐसा कोई प्राविधान नहीं है जिसके तहत आप ऐसा आदेश दें कि कोई आदमी अपने बच्चों कहॉं पढाये .
 संविधान में बच्चों को शिक्षा का अधिकार दिया गया है। अतः सरकार की यह जिम्मेदारी है कि वह सभी को शिक्षा प्राप्त करने का अवसर उपलब्ध कराये. किन्तु यह न संभव है और न उचित है कि सबको समान स्तर की शिक्षा उपलब्ध करायी जाये। जिस प्रकार प्रतिभाशाली बच्चों को विशेष शिक्षा, विशेष अवसर प्राप्त करने का अधिकार उचित है उसी प्रकार साधन सम्पन्न लोगों का शिक्षा पर अधिक खर्च करना उचित ही नहीं जरूरी भी है। आखिर इस बात का क्या मतलब है कि आप कपडों, जेवरों और गाडियों पर दौलत लुटायें और शिक्षा मुफत प्राप्त करें? क्या यह आम जनता पर बोझ डालना नहीं है? इससे अच्छा तो ये होगा साधन सम्पन्न लोगों से अधिक शिक्षण शुल्क लिया जाये और उसे साधनहीन लोगों के बच्चों को शिक्षित करने पर खर्च किया जाये । इस प्रकार सरकार पर शिक्षा का भार भी नहीं पडेगा और संम्पन्न लोगों को अपना पैसा खर्च करने का भी सही अवसर मिलेगा।
  कोर्ट को बच्चों की शिक्षा के सम्बन्ध में ऐसा आदेश जारी करने से पहले साधन सम्पन्न लोगों को पब्लिेक ट््रान्सपोर्ट, सरकारी चिकित्सालयों, मिड डे मील और राशन की दुकान के खाद्य पदार्थों का इस्तेमाल करने का निर्देश देना चाहिये था। उसे सार्वजनिक पेय जल स्रोतों के जल को पेयजल के रूप् में इस्तेमाल करने का भी निर्देश देना चाहिये था। आखिर वी0आई0पी0 को भी तो मालूम होना चाहिये कि आम आदमी कैसे जिन्दा रहता है?
इसकी शुरूआत माननीय न्यायधीश महोदय स्वयं इण्डिया मार्क-2 हैण्डपम्प का पानी पीकर कर सकते हैं। बडे लोगों की मेज पर रखीं मिनरल वाटर की बोतलें जनता को मुॅंह चिढाती सी लगती हैं।

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