रविवार, 27 सितंबर 2015

धर्म के नाम पर

                                           
मुझे लोग पागल बतायें तो क्या है ?
मैं जीवन बचाता हूँ लेता नहीं हूँ .

        धर्म  के  नाम  पर  जानवर  को  मारने  वालों  के  अपने  तर्क  हैं और  इंसान  को  मारने वालों  के  अपने, लेकिन कोई भी जिन्दा रखने   की  बात  नहीं  करता है. जितना जोर मारने पर है उतना जिन्दा रखने पर होता तो क्या अच्छा न होता? मैंने पढ़ा  है कि मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है तो फिर बचाने का काम क्यों न किया जाए ? जो धर्म प्राणी मात्र के प्रति दया रखना  सिखाता  है वही धर्म है बाकी धर्म के नाम पर अधर्म हैं . जिसके लिए 'धर्म अफीम है' का कथन सही है. वो तो हलके में कहा गया है अगर अफीम की जगह जहर भी लिखा होता तो ज्यादा सही होता. आखिर ये जहर ही है जो इंसानों में नफ़रत बनकर फैलता है, इंसानों को कुत्ते की मौत मरवाता है और जानवरों  को बिना बात मारना सिखाता  है . क्या यह इंसानियत है ?इससे तो पशुता भी अच्छी है .पशु कम से कम बिना भूख के तो किसी पशु को नहीं मारते हैं .एक साथ बहुत से पशुओं को भी नहीं मारते हैं . इसलिए तो बिल्कुल  नहीं मारते हैं कि दूसरा पशु मांस नहीं खाता है, घास खाता है या वो जमीन पर नहीं पानी में रहता है .इंसान तो पता नहीं किस किस बात पर बल्कि बिना बात भी दूसरे इंसान को मार डालता है. अभी मनुष्य को सभ्य होने में कितना वक्त लगेगा ?


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