गुरुवार, 22 सितंबर 2016

बाबूजी

ख़ुद  से लड़ने में गुज़रा है अपना हर पल बाबूजी।
फिर भी पार करेंगे हम ये दुख का दलदल बाबूजी।

मेरी ही गलती है मैंने दिल का कहना मान लिया,
अब सारी दुनिया ठहराये मुझको पागल बाबूजी।


गाँव हुये तब्दील शहर में उजड़े सब हरियाले घर,
आग सियासी जबसे फैली जंगल जंगल बाबूजी।


आखिर वो आज़ाद हो गया सूत के कच्चे धागों से,
कब तक सहता वार समय के बूढ़ा पीपल बाबूजी।


डटे हुए हैं सभी बुरे ग्रह इस मुफलिस की क़िस्मत में,
कुटिल शनि, शठ राहू केतू, शातिर मंगल बाबूजी।


रूखसत हुआ खिजां का मौसम हँसकर आई नई बहार,
जब भी पेड़ पे हँसकर फूटी नन्हीं कोंपल बाबूजी।
                                     ------- महेश जोशी "अनल".

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