बुधवार, 12 अप्रैल 2017

सीटी बज ही जाती है.

वो मेरी जान है घर से कभी आती है जाती है 
नजर  हर बार उसको देखने को उठ ही जाती हैं .


मैं घर अपना बदल लूँ रास्ता वो तो न बदलेगी 
इधर से जब गुजरती हैं तो सीटी बज ही जाती है.


बहुत चाहा उसे हसरत भरी नज़रों से न देखूँ
मगर मजबूर उन की दिल से चाहत ही ना जाती है .


कभी वो रूठती, बलखाती है,आँखें दिखाती है
कभी जब बात करते हैं तो उस को शर्म आती है .


कभी वो खिलखिलाकर जोर से हंसती है महफ़िल में
कभी वो सोच के गहरे समंदर डूब जाती है .


मोहब्बत हो गयी उससे कभी सोचा ना ये देखा
कि उसका कौन सा मजहब है उसकी कौन जाति है .


वो मेरे घटिया शेरों पर भी मुझ को दाद देती  हैं
मुझे लिखना नहीं आता, समझ वो भी ना पाती है .






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