रविवार, 16 अप्रैल 2017

मंदिर में तुम जाना छोडो,

मंदिर में तुम जाना छोडो,
यूँ मस्जिद की ओर न दौड़ो
आ मदिरालय में मिलते हैं
पीने से मुँह कभी न मोड़ो
बैर कराते मंदिर मस्जिद
मेल कराती मधुशाला है
हिन्दू मुस्लिम नहीं,शराबी
 कहलाता पीने वाला है .
यहाँ लूटने, ठगने वाली
चलती कोई दुकान नहीं है
टोपी दाड़ी तिलक दुशाला
नफ़रत का सामान नहीं है
यहाँ प्यार की बातें होती
राग़ जिन्दगी का गाता है
दुनिया भर से दुखी आदमी
कुछ सकून के पल पाता है.
मदिरालय है सच्चा तीरथ
प्याले में ईश्वर की मूरत
पीने वाला ध्यान लगाये
देख रहा है उसकी सूरत .
या तो मदिरालय में आ जा
या फिर मेरे अन्दर आ जा
क्यूँ प्याले में डोल रहा है
औ सारी स्रष्टि के राजा .
या तो तू स्रष्टि का मालिक
या मैं मालिक हूँ स्रष्टि का
तुझमें मुझमें फर्क नहीं कुछ
फर्क देखने की द्रष्टि का .
देख नहीं सकते जो ये सच
दोष ये उनका सोच ये उनकी
हमने भेद नहीं माना कुछ
लोग कहें पागल या सनकी .
लेकिन आज जरुरत जग को
हम जैसे पागल, रोगी की
न कि रंगे गेरुआ चोला पहने
किसी महंत योगी की .

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