बुधवार, 27 दिसंबर 2017

मिर्जा ग़ालिब -गिरिराज वेद

है इस दुनियां मे सुखन्वर बहोत अच्छे
कहते है कि गालिब का अंदाज़ ए बयां कुछ और.....
और ये अंदाज़े बयां मुझे कभी समझ नहीँ आया ! अब भी गालिब साहब के आधे से ज्यादा शेर मेरे सर के ऊपर से निकलते है ! इसका कारण, उर्दू के साथ हि शायरी कि कम समझ भी है !
लेकिन फिर भी गालिब के जो शेर समझ आते है, वो कहीँ अंदर तक गहरे उतर जाते है !
आजसे 220 साले पहले जन्में ये अजीम शायर मेरी नजर में सिर्फ शायर नहीँ है ! इनको जितना समझ पाया हूँ उसके हिसाब से इन्हें बुद्ध, कबीर, नानक के समतुल्य पाता हूँ !
सदियों से दुनिया के विभिन्न मजहबों धर्माचार्य और स्वंभू झंडाबरदार जिस जन्नत का ख़्वाब दिखाकर लोगों को कट्टर धार्मिकता की ओर धकेलते रहे हैं , ग़ालिब ने बहुत पहले उस 'जन्नत की हकीकत' को बेपर्दा कर दिया था
"हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन,
दिल को बहलाने को ग़ालिब ये ख्याल अच्छा है"
वे आदमी को इंसान बनाने के पक्षधर थे !
अपने समय के दर्द को कहने का ग़ालिब का अंदाज़ भी अलग था, बरबस आज भी वहि दौर है, थोड़ासा अंतर आ गया उस वक़्त अंग्रेजों कि गुलामी थी और आज लोकतांत्रिक तानाशाहो कि, अपने ज़माने कि पीढ़ा और लोगों के सोये हुऐ जमीर पर उन्होने लिखा
"रगो में दौड़ते फिरने के हम नही कायल,
जब आँख ही से ना टपका तो फिर लहू क्या है"
देश के पहले स्वतन्त्रता संग्राम (1857) के बाद दिल्ली में हुई मारकाट के बारे में 1858 में मुंशी हरगोपाल तफ्ता के नाम लिखी चिट्ठी में ग़ालिब ने ग़दर का हाल बयान किया है-
“अंग्रेज की कौम से जो इन रूसियाह कालों के हाथ से कत्ल हुए,
उसमें कोई मेरा उम्मीदगाह था और कोई मेरा शागिर्द।
हाय, इतने यार मरे कि, जो अब मैं मरूँगा
तो मेरा कोई रोने वाला भी न होगा"
ग़ालिब अपने समय कि रुढ़िवादी परम्पराओं से बहुत आगे थे, जिनका धर्म था सिर्फ इंसानियत और मोहब्बत
मौलाना कलाम आजाद के पौत्र ने अपनी किताब में उनके बारे में एक रोचक प्रसंग बयान किया है !
वो लिखते है -
जब कलम और पैसे का कभी मेल नहीं हुआ तो भला वो गालिब के ही साथ कैसे रहता !
ग़ालिब जन्म से लेकर अपनी मृत्यु तक हमेशा फाकाकशी का ही शिकार रहे ! जो थोड़ी-बहुत पेंशन मिलती थी, वह कर्जदारों को चली जाती थी !
एक बार ऐसा हुआ कि गालिब के पास एक भी पैसा न रहा ! वे उन दिनों अपना फारसी दीवान लिख रहे थे और नए शेरों की रचना के लिए शराब की सख्त जरूरत थी उन्हें ! वो अपनी बीबी के पास गये और उनसे इधर-उधर के बहाने बनाकर पैसे देने की विनती की ! मगर उन्होंने साफ मना कर दिया !
फिर ताना देते हुए बोलीं, मिर्जा खुदा के दरबार में सच्ची दुआ करो और नमाज पढ़ो तो मुराद पूरी होगी!
गालिब उन्हें खुश करने के लिए नमाज के पाक-साफ कपड़े पहने और जामा मस्जिद की ओर निकल पड़े ! मशहूर शायर, वाजिद सहरी लिखते हैं कि रास्ते में अनेकों व्यक्ति उन्हें मिले और यह देख कर चकित हुए कि सूर्य पश्चिम से कैसे निकला अर्थात गालिब जामा मस्जिद की ओर कैसे? वे तो रोजा और नमाज से दूर ही रहा करते थे !
जामा मस्जिद पहुंच कर गालिब ने हौज से वजू किया और सुन्नतें पढ़ने बैठ गए ! यह समय दोपहर की नमाज का था ! उधर गालिब घुटनों पर सिर झुका कर बैठ गए कि कब खुदा का हुक्म हो और शराब की बोतल उनके चरणों में गिरे !
अभी गालिब साहब मस्जिद पहुंचे ही होंगे कि एक शागिर्द उन से मिलने को उनके घर गए ! उन्हें गालिब से अपनी शायरी ठीक करानी थी ! उमराव बेगम ने बताया कि ग़ालिब तो आज जामा मस्जिद गए हैं नमाज पढ़ने !
शागिर्द को भी आश्चर्य हुआ कि गालिब और जामा मस्जिद !
उसने जब पूरा हाल सुना तो तुरन्त बाजार गया और शराब की एक बोतल खरीदी ! उसे कोट के भीतर छिपा कर वह मस्जिद गया और गालिब को आवाज दी ! पहले तो उन्होंने अनसुनी कर दी, मगर दूसरी बार जब शागिर्द ने पुकारा तो देखा कि वह कोट की अंदर की जेब की ओर इशारा कर रहा था ! ग़ालिब यह देख कर जूतियां उठाकर चल पड़े !
गालिब को जमात में सम्मिलित न होते देख कर लोगों को बड़ी हैरानी हुई कि इमाम साहब तो नमाज पढ़ाने आ रहे हैं और गालिब साहब मस्जिद से बाहर जा रहे हैं ! एक नमाजी बोले, गालिब साहब, जिंदगी में पहली बार तो आप मस्जिद में आए हैं और बिना फर्ज पढ़े जा रहे हैं ! आखिर मामला क्या है?'' तब गालिब बोले, 'भाई, बिना फर्ज पढ़े, मेरा काम तो सुन्नतों से ही हो गया है!
गालिब का घर हकीमों वाली मस्जिद के नीचे था और लोग प्रायः उन्हें टोका करते थे कि मस्जिद के ठीक नीचे बैठकर वे शराब न पिएं ! उसी पर गालिब ने शेर पढ़ा था-
"जाहिद शराब पीने दे मस्जिद में बैठकर
या वो जगह बता जहां खुदा न हो"
गरीबी ही गालिब पर गालिब (हावी) रही ! थोड़ी-बहुत आमदनी मुशायरों से या वजीफों से हो जाती थी ! लगातार कमाई का कोई जरिया नहीं था ! लेकिन गालिब ऊंची नाक वाले व्यक्ति थे और स्वाभिमान व शानो शौकत नवाबों से भी बड़ी थी ! यह शान पैसे की न थी, बल्कि मिजाज की थी ! मुशायरों में वे सदा स्टेज के ऊपर व बीच में या बादशाह के बराबर बैठना पसंद करते थे !
शायरी के बादशाह ग़ालिब साहब के कुछ शेर-
इस सादगी पे कौन न मर जाए ए ख़ुदा
लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं !
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले !
इश्क़ पर ज़ोर नहीं ये वो आतिश है ग़ालिब
जो लगाए न लगे और बुझाए न बुझे !
दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है !
इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना !
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले !
और मेरा पसंदीदा -
उनको देखने से जो आ जाती है चेहरे पर रौनक
वो समझतें हैं के बीमार का हाल अच्छा है !

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