गुरुवार, 4 जनवरी 2018

कोरे गांव की ऐतिहासिक घटना

हम भी तो लड़े जमकर हमने भी विजय पायी 
इतिहास में क्यों इसको लिखते नहीं हो भाई ?

तुम शीश हो तनकर रहो ऊँचे सदा लेकिन
मैं पाँव हूँ नीचे भी हूँ, तुम मुझपे खड़े हो |
मैं तुमको संभाले रहा हूँ उम्र भर देखो
वरना पता लग जाता कि तुम कितने बड़े हो |


भारत में बहुत सी ऐसी महत्वपूर्ण घटनाएं  घटित हुई हैं जिन्होंने इतिहास को नया मोड़ दिया है  लेकिन  उन्हें इतिहास में दर्ज नहीं किया गया है |इतिहास में दर्ज नहीं किया गया तो उसके बारे में लोग  जानते भी नहीं हैं |आम आदमी की बात छोड़िये इतिहास के विद्यार्थी भी कोरे गांव की ऐतिहासिक घटना को नहीं जानते हैं | अब जब एक ख़ूनी संघर्ष दलितों और मराठों के बीच हो गया है तो इतिहास को सोशल मीडिया के माध्यम से सबके सामने लाया गया है |
स्वयं मुझे भी सोशल मिडिया से ही ये जानकारी हुई है कि दो सौ साल पहले अंग्रेजों की और से लड़कर पांच सौ महार सैनिकों ने पेशवा बाजीराव की अट्ठाईस हजार सैनिकों की फ़ौज को हरा दिया था |उसी विजय की याद में हर वर्ष  दलित समुदाय के लोग शौर्य दिवस मनाते हैं |
निश्चय ही महार सैनिकों  के शौर्य प्रदर्शन ने मराठों के पतन और अंग्रेजों के पाँव जमाने में बड़ा योगदान किया है |
सवाल ये है कि इस घटना को इतिहास में क्यों यहीं दर्ज किया गया है ? क्या इसका कोई महत्व नहीं है ? ये भी बड़ा सवाल है कि क्या इस घटना को स्वतंत्र भारत में उसी रूप में याद किया जा सकता है जैसे वह घटित हुई है ?
 रामचंद्र जी की वानर सेना राक्षसराज रावण पर विजय प्राप्त करती है | हजारों साल बाद भी हम उस विजय दिवस को विजय दशमी के रूप में मनाते हैं |साथ में ये याद दिलाते रहते हैं कि रावण  ने किस प्रकार वनवासियों का जीवन दूभर कर दिया था | वानर इस विजय दिवस को नहीं मनाते हैं लेकिन हम मनाते हैं और बड़े गर्व से मनाते हैं लेकिन अगर दलित अपनी मुक्ति दिवस को, अपने शौर्य दिवस को याद करते हैं तो बहुत लोगों को ये सहन नहीं होता है जबकि वहाँ स्वयं पीड़ित समुदाय हर्ष मना रहा है |

सवाल ये है कि जो व्यवहार आप स्वयं करते हैं वही जब दूसरा करता है तो आपको बुरा क्यों लगता है ? हजारों साल बाद लंका विजय का उत्सव मनाना और प्रतीक रूप में ही सही रावण का पुतला जलाना क्या घृणा को जिलाये रखना नहीं है ?
मराठों सरदारों ने दलित समुदाय के साथ जो दुर्व्यवहार किया उस के कारण  ही महार लोग जी जान से अंग्रेजों के लिए लड़े थे | अंग्रेज उनके सगे नहीं थे,उनके जाति भाई नहीं थे ना ही अंग्रेजों की जीत से उन्हें राजसत्ता में हिस्सेदारी नसीब हुई थी लेकिन अंग्रेजों की जीत से उन्हें दो बड़े फायदे हुए थे |पहला ये कि उन्हें मराठों के उत्पीड़न से मुक्ति मिल गयी थी दूसरा ये कि वे अपने लोगों में ये विश्वाश जगाने में सफल हुए कि वे उच्च जातियों को लड़कर हरा सकते हैं | इसी विश्वाश को कायम रखने के लिए वे शौर्य दिवस मनाते हैं |
लेकिन हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि इससे अंग्रेजों की जीत का जश्न भी जुड़ा हुआ है |अंग्रेजों की जीत को जश्न के रूप में आज कोई भी याद नहीं करना चाहेगा और ना ही इसे किसी भी तरह सराहा जा सकता है | यूँ भी दलित जातियों को आजाद भारत में काफी संवैधानिक अधिकार और सरंक्षण दिया गया है | जो अधिकार व्यावहारिक रूप से उन्हें नहीं प्राप्त हो सके हैं उन्हें प्राप्त करने का विधिसम्मत संघर्ष का मार्ग उनके लिए खुला हुआ है | जिग्नेश मेवाणी उस रास्ते पर सफलतापूर्वक आगे बढ़ रहे  हैं |  बस कुछ लोगों ऐसे ही युवाओं से परेशानी है इसलिए वे हमलावर हो गए हैं |
इतिहास में सभी महत्वपूर्ण घटनाओं को निष्पक्ष रूप से लिखा जाना चाहिए और उन घटनाओं के आधार पर वर्तमान में कोई वैमनस्य नहीं होना चाहिए | इतिहास गुजर चूका है उसके कारण वर्तमान को नहीं बिगाड़ा जा सकता है | वर्तमान को संवारेंगे तो भविष्य संवर जाएगा |
अब ना राजे महाराजे हैं ना जमींदार और सामंत हैं |जाति की बेड़ियाँ भी टूट रही हैं |अगर राजनीतिक फायदे के लिए धर्म और जाति की कट्टरता को बढ़ावा ना दिया जाए तो हम सबका भला होगा नहीं तो हमारी बर्बादी को कोई नहीं रोक पायेगा |

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